tag:blogger.com,1999:blog-30961330542683680822024-02-19T08:25:54.539+05:30Kala Jagatworld of art and artists...Uttamahttp://www.blogger.com/profile/02850421830553640513noreply@blogger.comBlogger72125tag:blogger.com,1999:blog-3096133054268368082.post-45189800587258265592012-10-07T02:07:00.001+05:302012-10-07T02:09:24.920+05:30<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<h2 style="text-align: left;">
मै एक बार फिर ब्लॉग शुरू करने जा हूँ !</h2>
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दरअसल काफी दिनों मै कुछ दूसरे कम में व्यस्त थी! खासकर पेंटिंग में ! लेकिन अब एक बार फिर से ब्लॉग शुरू कर रही हूँ! </div>
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Uttamahttp://www.blogger.com/profile/02850421830553640513noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3096133054268368082.post-88513463042451094772011-08-22T09:16:00.002+05:302011-08-22T09:28:23.007+05:30कला जगत को भी चाहिये अन्ना<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEixiZDRnpkKAmALsLi2uE6kfpaXI8aelQ7lTODf2-f9Fb2eiw4KrR-wRNErKeTmyFG9UTJb7lvysyJ9k2l6y03ZcHFG1VDdmBocFNPKwwX79C9Lt1PubI_5JXO-aDJzrLk8Iymh8xT45w/s1600/Anna_Hazare_Sketch.JPG"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 162px; height: 200px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEixiZDRnpkKAmALsLi2uE6kfpaXI8aelQ7lTODf2-f9Fb2eiw4KrR-wRNErKeTmyFG9UTJb7lvysyJ9k2l6y03ZcHFG1VDdmBocFNPKwwX79C9Lt1PubI_5JXO-aDJzrLk8Iymh8xT45w/s200/Anna_Hazare_Sketch.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5643524641553719954" /></a> भ्रष्टाचार के विरुद्ध अड़े अन्ना हज़ारे की लहर चल रही है। थोड़ी धीमी ही सही, पर कलाकारों ने भी हजारे के समर्थन में आवाज उठाई है। उड़ीसा के मूर्तिकार सुदर्शन पटनायक ने अन्ना को सैंड मॉडलिंग से समर्थन दिया तो वहीं कला की तमाम अन्य संस्थाएं भी सड़कों पर उतरी हैं। कला के छात्र शरीर पर पेंट कर रहे हैं तो कई ने पेंटिंग्स और पोस्टर्स को विरोध प्रदर्शन का जरिया बनाया है। आर्ट की क्लासेज़ में सभी सब्जेक्ट्स पीछे रह गए हैं, अन्ना हैं सबसे आगे। हर कैनवस पर अन्ना, हर मूर्ति की शक्ल में है अन्ना। पर शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो जहां भ्रष्टाचार ने अपनी पैठ न बनाई हो तो भला कला जगत कैसे अछूता रह सकता है?
<br />कला में भ्रष्टता इस तरह है कि आम आदमी आसानी से सोच भी नहीं सकता। ऐसे-ऐसे कलाकार अवार्ड-पुरस्कार पा जाते हैं जिनके काम में न गंभीरता है और न ही कला की समझ ही। कला के प्रति समर्पण तो बहुत दूर की बात है। कहीं पैसे देकर बड़े अवार्ड खरीदे जा रहे हैं तो कहीं भाई-भतीजावाद, जाति-क्षेत्रवाद भारी पड़ रहा है। मुझे अच्छी तरह से याद है कि वर्षों पूर्व एक ललित कला अकादमी के चेयरमैन ने अपनी बेटी को अवार्ड के लिए चुनवा लिया। उस समय दावेदारों में कई अच्छे कलाकार थे पर चेयरमैन को यह सब जैसे दिखाई ही नहीं दिए। एक संयोजक तो और भी आगे निकल गए। उन्होंने पहले क्षेत्रीय प्रदर्शनी में अपने ही छात्रों के बीच प्रतियोगिता के लिए अपनी कृति रख दी और उसे उन दस कृतियों में चुनवाकर राज्य स्तरीय अवार्ड भी हड़प लिया। यहां भी राजनीति घुस आई है। मंत्रियों के स्तर से भ्रष्टाचार की ऐसी घुसपैठ की गई है कि अवार्ड महज सिफारिशों के आधार पर ही बंटने लगे। कलाकार उन तक पहुंच बनाने में ही अपनी ऊर्जा व्यय करने लगे, नुकसान कला को हुआ। अवार्ड बांटने वालों तक पैसे की पहुंच बनाने के लिए दलाल सक्रिय हो गए। हालात यहां तक हैं कि असली कलाकार बहुत मुश्किल से अवार्ड जीत पा रहे हैं। इसीलिये विजेताओं की सूची गुपचुप जारी हो जाती है, ताकि प्रक्रिया पर अंगुली जब उठे तब तक बहुत देर हो चुकी हो। समीक्षक भी धंधेखोरी में लगे हैं। बजाए अंगुली उठाने के, वो पैसे लेकर उस कलाकार की तारीफ के पुल बांध देते हैं जिसे अवार्ड दिलवाना हो।
<br />भ्रष्टाचार के और भी तरीके हैं। प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों और कुकुरमुत्तों की तरह उगी संस्थाओं की डिग्री की समकक्षता ने बेड़ा गर्क कर डाला है। यह संस्थान बड़ी फीस लेकर उन छात्रों को भी कलाकार बना दे रहे हैं जिनकी कला में रुचि है ही नहीं। इसके दूरगामी असर हैं, यह छात्र इन्हीं डिग्रियों के सहारे कला के शिक्षक तक बन जा रहे हैं। यह अपने छात्रों को सिखाते क्या होंगे, यह बताने की जरूरत नहीं। इन संस्थानों के शिक्षक भी पीछे नहीं। यह छात्रों की प्रदर्शनियां आयोजित कराने में कमीशन वसूलते हैं। तरीका यह भी हो सकता है कि छात्र इनकी कृति भी प्रदर्शनी में शामिल करें वरना बैठे रहें। शिक्षक चाहेंगे तो दुनिया उनकी कला देखेगी, खरीदेगी। आर्ट गैलरीज़ भी पीछे नहीं। तय कमीशन तक की बात तो ठीक है लेकिन यह कभी-कभी कलाकार को प्रमोट करने में भी पैसा वसूलने लगती हैं। इनकी अपनी च्वॉइस है, आप होते रहिए कलाकार। यह मौका उन्हीं को देंगे जिन्हें चाहेंगे। बायर्स से सेंटिंग है इनकी, इसलिये कलाकार कुछ कर नहीं सकते। छात्र जीवन में एक राज्य अकादमी के बाहर दो वरिष्ठ कलाकारों की बातचीत मैंने सुनी थी जिसमें स्त्री कलाकार पुरुष से कह रही थीं कि पूरी उम्र काम करते गुजर गई लेकिन मुझे ढंग का अवार्ड नहीं मिला। पुरुष कलाकार का जवाब था, अच्छा हुआ। तुम शायद वह-सब नहीं कर पातीं जो आज जरूरी हो गया है। तुम गंवातीं और उसके पास जी भी न पातीं। इससे अच्छा है बिना अवार्ड के जीना। मैं अचंभित थी, आज पता चलता है कि यह वास्तविकता है कला जगत की। है कोई अन्ना जो कला की दुनिया को भ्रष्टाचार के इस मलिन रास्ते से हटा सके। तमाम कलाकार उसकी बाट जोह रहे हैं।Uttamahttp://www.blogger.com/profile/02850421830553640513noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3096133054268368082.post-38412306018002133462011-07-19T08:21:00.004+05:302011-07-19T08:30:51.117+05:30कोलाज की अजब दुनिया<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhcgAct8AaaDlQ-TXgjQxSMcg9N5uMuzVnFLxfGgQfMYZwCi259MMP_aGQIDe4KJqLgVs_hMVJNNSKC6K-SScrRQC0bF0O3Td2Iutl1T-UTRmwg_fvdcOM-gj2aGoLWs9h3Be0zwGW58g/s1600/dog_art_collage.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 200px; height: 200px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhcgAct8AaaDlQ-TXgjQxSMcg9N5uMuzVnFLxfGgQfMYZwCi259MMP_aGQIDe4KJqLgVs_hMVJNNSKC6K-SScrRQC0bF0O3Td2Iutl1T-UTRmwg_fvdcOM-gj2aGoLWs9h3Be0zwGW58g/s200/dog_art_collage.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5630892713354569746" /></a> अगर आपको नए एक्सपेरिमेंट्स का शौक है और कई वैरायटी के कलर्ड पेपर, कपड़ों के टुकड़े, वाल पेपर, रिबन, शापिंग बैग्स, कलर्ड थ्रेड्स आपके पास हैं तो आप उनसे क्रिएटिव आर्ट पीस तुरंत तैयार कर सकते हैं. जरूरत है सिर्फ उन्हें एक साथ कंपोज करके पेपर पर चिपकाने की. यह कोलाज पेंटिंग टेक्निक है जिसमें एक-दूसरे से अलग मैटीरियल्स को एकसाथ जोड़कर बनाया जाता है. कोलाज बनाना एक फन जैसा है जो बहुत ईज़ी भी है. इसे कैरी करना भी आसान है. <br />विजुअल आर्ट में रखा गया है कोलाज को जो एक फेंच शब्द है. यह कोले शब्द से बना है जिसका अर्थ है चिपकाना. इस कला में अनूठी बात यह है कि विविध चीजों को मिलाकर एक नया रूप सामने आता है. कोलाज पेंटिंग की शुरुआत क्यूबिस्ट आर्टिस्ट जार्ज ब्राक और पाब्लो पिकासो ने बीसवीं सदी में ही कर दी थी, बाद में और आर्टिस्ट अपनी-अपनी तरह से इसमें काम करने लगे. थ्री-डी इफेक्ट की वजह से इसमें पेंटिंग और स्कल्पचर दोनों का आनंद मिलता है. कोलाज के लिए फेमस सीनियर आर्टिस्ट अमृत लाल वेगड़ कहते हैं, मैं अपनी पेंटिंग्स में एक मैग्जीन के कलर्ड पेजेज का यूज करता हूं ताकि उनमें शेप और टेक्स्चर को नया आयाम मिले. इसीलिये मेरे पास ऐसी मैग्जीन्स के करीब पांच सौ इश्यू हर समय रहते हैं. कोलाज बनाना इतना एंजायिंग है कि एक कागज पर दूसरा कागज चिपकाइये और वह भी अच्छा न लगा तो तीसरा और चौथा. कागज इतना पतला होता है कि तीन-चार परत चढ़ने के बाद भी कोई डिफरेंस नहीं पड़ता. सचमुच कितना मजा आता है जब कोलाज में कौआ आंख बन जाए और नदी के डेल्टा का दलदल हैंडलूम की साड़ी. यह हमेशा नई छटा प्रस्तुत करते हैं. कई साल पहले इंडियन पिकाओ मकबूल फिदा हुसैन ने भी फिगरेटिव कोलाज बनाए थे.<br />मुंबई के एक आर्टिस्ट ने जले हुए फोटोग्राफ्स को चारकोल से बनी ड्राइंग पर चिपकाकर नया अनूठा इफेक्ट दिखाया. वहीं आगरा की एक आर्टिस्ट ने ताजमहल की कई कोलाज पेंटिंग बनाईं, इस मिक्स मीडिया पेंटिंग्स में उन्होंने एक्रेलिक कलर का यूज भी किया. <br />कोलाज की एक टेक्निक फोटो-मान्टेज में अलग-अलग फोटोग्राफ्स या उनके टुकड़ों को काटकर किसी दूसरे फोटो से जोड़कर चिपकाया जाता है. कई आर्टिस्ट इस टेक्निक का यूज करते हैं और काफी फेमस भी हैं.यह एक तरह से इमेज एडिटिंग साफ्टवेयर का काम होता है. सच में बहुत मजा आता है इसमें. वह कोलाज ही तो है जिसने सोशल एक्टीविस्ट बिनायक सेन की लड़ाई को आर्ट से जोड़ा. कोलकाता के एक आर्टिस्ट ने इसमें पेंटिंग, फोटोग्राफी और उनके करीब 50 मिनट के भाषण को एकसाथ जोड़ा. टेक्स्ट, फोटो, आडियो, वीडियो, कविता, पेंटिंग सब-कुछ इसमें शामिल था. लगभग सभी आर्टिस्ट कोलाज जरूर बनाते हैं, यह अलग है कि कभी-कभी कोलाज भारी भरकम पेंटिंग्स सब्जेक्ट्स से हुई थकान से मुक्ति दिलाने का काम करते हैं. कंप्यूटर्स के बढ़ते यूज ने कोलाज में भी इंटरफेयर किया है, इसे डिजिटल कोलाज का नाम मिला है. इसमें एडिटिंग का काम कंप्यूटर करते हैं, साथ ही डिजिटल इफेक्ट भी उसी से आता है. तरह-तरह के साफ्टवेयर हैं जो कोलाज बनाने की कला को आसान कर रहे हैं.<br />और भी कई तरह के कोलाज हैं. वुड कोलाज में वुडेन पीसेज को बोर्ड पर चिपका देते हैं. किसी भी बेकार मान ली गई वस्तु से भी कोलाज बनते हैं जैसे टूटे हुए कप. इन्हें और अट्रैक्टिव बनाने के लिए रस्सियों और कलर्ड थ्रेड्स का यूज होता है. कोलाज बेशक नई विधा नहीं है लेकिन यूथ आर्टिस्ट ने इसे और अट्रैक्टिव बना दिया है. वह खूब सोचते हैं और रचते हैं. नए एक्सपेरिमेंट्स से झिझकते नहीं. कहते हैं कि कोलाज दिल से निकली अभिव्यक्ति है और विविध आयामों को एक आयाम के रूप में प्रस्तुत करने जैसा है. यह ठीक उसी तरह है जैसे सात रंगों को मिलाकर स्पेक्ट्रम पूरा होता है. स्टूडेंट्स और नए आर्टिस्ट का रुझान बता रहा है कि कोलाज का भविष्य बहुत अच्छा है.<br /><br /><span style="font-weight:bold;">समाचार पत्र आई-नेक्स्ट में भी देखें मेरा यह आर्टिकल-<br /><span style="font-style:italic;"></span></span><a href="http://epaper.inextlive.com/8132/i-next-agra/18.07.11#p=page:n=11:z=1">http://epaper.inextlive.com/8132/i-next-agra/18.07.11#p=page:n=11:z=1<br /></a>Uttamahttp://www.blogger.com/profile/02850421830553640513noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3096133054268368082.post-63477371395404202782011-06-09T14:14:00.000+05:302011-06-09T14:15:39.785+05:30हुसैन पर यूं फिदा हो जाना...<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjJ3TTBPQREhkYrwuj4TlKr4yM9J0UrdSYCVe0-x4WDruUljASoCLM_na41Pix83mChKkL_YHQuvsAmTcJFQvCTDlByispDH2fnHMPbrqGETh0PxfB2uTWZflvTcGGSLnn0zX1_6LYcDQ/s1600/hussain.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 143px; height: 200px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjJ3TTBPQREhkYrwuj4TlKr4yM9J0UrdSYCVe0-x4WDruUljASoCLM_na41Pix83mChKkL_YHQuvsAmTcJFQvCTDlByispDH2fnHMPbrqGETh0PxfB2uTWZflvTcGGSLnn0zX1_6LYcDQ/s200/hussain.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5616138427632693458" /></a> मशहूर चितेरे मकबूल फिदा हुसैन को उनके चाहने वालों का अंतिम सलाम। कला को आम आदमी की चर्चाओं में शुमार करने वाले हुसैन का यूं चले जाना, जैसे आघात के समान है। नई सदी की शुरुआत में दर्ज आंकड़ों के मुताबिक, जिस दुनिया में औसत उम्र 26 बरस आठ माह हो, वहां 95 वर्ष की उम्र में दुनिया से विदाई बेशक, बड़ी बात नहीं लेकिन जब जाने वाला मकबूल हो, तो दुख का समुद्र उमड़ना लाजिमी ही है। मकबूल ऐसे ही इतने बड़े कलाकार नहीं बन गए। वर्ष 1947 में वे प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप में शामिल हुए क्योंकि परंपराओं पर चलना उन्हें पसंद नहीं था। कोशिश थी कि बंगाल स्कूल ऑफ़ आर्ट्स की राष्ट्रवादी परंपरा को तोड़कर कुछ नया करने की। लगातार नया करने की उनकी आदत ने उन्हें प्रसिद्धि की शिखर तक पहुंचा दिया। एक दिन, क्रिस्टीज़ ऑक्शन में उनकी एक पेंटिंग 20 लाख अमेरिकी डॉलर में बिकी और वह भारत के सबसे महंगे पेंटर बन गए। आर्टप्राइस को यदि प्रसिद्धि का पैमाना मानें तो दुनिया के महंगे कलाकारों में हुसैन का मुकाम 136वां है।<br />हुसैन पर फिदा थे कला की इस विशाल दुनिया के हजारों-लाखों लोग। इसकी ढेरों वजह हैं। वह किसी कलाकार की तरह यदि संवेदनशील थे तो व्यावहारिक भी। वह जानते थे कि किस तरह चर्चाओं में शामिल हुआ जा सकता है। उनकी चर्चा दोनों ओर होती, आलोचकों के लिए वह एक ऐसे आर्टिस्ट थे जिसे किसी आस्था से सरोकार नहीं और पैसा कमाना ही जिसका ध्येय है। उन पर हिंदू-देवी देवताओं के अश्लील चित्र बनाने का भी आरोप लगा था। 1955 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया था। इसके बाद पद्म भूषण और राज्यसभा की सदस्यता के लिए मनोनीत होने का बड़ा सम्मान भी हासिल हुआ। भारत से इतना सम्मान और प्रतिष्ठा पाने वाले मकबूल से निराशा तब हाथ लगी जब उन्होंने भारतीय नागरिकता छोड़ दी। दुर्भाग्यपूर्ण उनका बयान भी था कि भारत ने मेरा बहिष्कार किया इसलिये मैं कतर की नागरिकता स्वीकार कर रहा हूं। दक्षिणपंथी संगठनों ने उनके मुस्लिम होने पर नहीं बल्कि कला और अभिव्यक्ति पर हमला किया। मुझ पर हमला हुआ तो सरकार, कलाकार और बुद्धिजीवी सब चुप रहे। <br />... और चाहने वालों के लिए वह हुसैन थे। वह इतने प्रसिद्ध हो गए, कि उन्हें प्रतिष्ठित फोर्ब्स मैग्जीन ने इंडियन पिकासो का नाम दे दिया। एमएफ हुसैन उन लोगों में से एक थे जो सुंदरता की कद्र करते हैं। प्रशंसक कहते कि पुरातन काल से ही हमारा देश कला का मुरीद रहा है। सुंदरता देखने वाले की आंखों में होती है। मुगल काल में राजा-महाराजा और उच्च घराने कलाकारों को संरक्षण प्रदान कर उनकी कला का आदर करते थे। दुर्भाग्य से आज कलाकृति के सौंदर्य को अश्लीलता कहा जाता है। प्राचीन कला उत्तेजक कलाकृतियों से भरपूर रही है। पुरुष और महिला का आलिंगनबद्ध प्रदर्शन प्राचीन कला का मुख्य आकर्षण रहा है। लेकिन आज नग्नता को सिर्फ अश्लीलता की आंखों से देखा जाता है। मकबूल फिदा हुसैन की पेंटिंग को अश्लील कहने वालों पर दिल्ली हाईकोर्ट ने भी कटाक्ष किया था। देशभर में उनके विरुद्ध मामलों के स्थानांतरण पर सुनवाई करते हुए जस्टिस संजय किशन कौल ने कहा कि अदालत में हुसैन के खिलाफ केस दर्ज करने वाले लोग लगता है कभी भी समकालीन कला के दर्शन के लिए आर्ट गैलरी नहीं गए। अगर गए होते तो उन्हें पता होता कि सिर्फ हुसैन ही नहीं बल्कि कई प्रमुख पेंटर नग्नता को अपनी अभिव्यक्ति के रूप में पेश कर चुके हैं। कुछ भी हो, आर्टिस्ट हुसैन का दुनिया से जाना सचमुच दुखभरी घटना है। मेरी ओर से उन्हें श्रद्धांजलि।Uttamahttp://www.blogger.com/profile/02850421830553640513noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3096133054268368082.post-14902348785442677322011-05-25T07:47:00.003+05:302011-05-25T07:52:40.918+05:30आर्ट का समर सीजन<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiGgOBtpOLPBzTsD_yMyHHs9OzPTzv_xH6nYWYebE7sHl2My-EIH_ezZzZeU3p7hIcTPQ9aPB7ZEUUq-x-r0YDzeu9Xrrfs3yplB-mhPynCwvYIQqCpVdMPszG4I7ocKRk5cyZRR3JqKw/s1600/pallette.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 200px; height: 133px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiGgOBtpOLPBzTsD_yMyHHs9OzPTzv_xH6nYWYebE7sHl2My-EIH_ezZzZeU3p7hIcTPQ9aPB7ZEUUq-x-r0YDzeu9Xrrfs3yplB-mhPynCwvYIQqCpVdMPszG4I7ocKRk5cyZRR3JqKw/s200/pallette.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5610472979350699442" /></a> पढ़ने-पढ़ाने से कुछ समय के लिए छुट्टियां. समर वैकेशन्स का अलग मजा है, खासकर आर्ट फील्ड में. यह दिन सीखने के होते हैं. समर कैंप्स तो है हीं, वर्कशॉप्स और आर्ट कैंप्स भी खूब आर्गनाइज होते हैं. इनकी इम्पॉर्टेंस है. आर्ट वर्ल्ड के खिलाड़ी यहां सीखते हैं और न्यू कमर्स को सिखाते हैं. हॉटी समर्स में कोई शहर ऐसा नहीं बचता जहां यह एक्सरसाइज न चले. हिल्स एरियाज़ की तो बात ही और है. वहां तो कला के जैसे मेले जुटते हैं हर साल. गर्मियों की छुट्टियों का सभी को बड़े दिनों से इंतजार रहता है. कइयों के दिन तो कैलेंडर में तारीखें गिन-गिनकर कटते हैं. सालभर की भाग-दौड़ से मुक्ति दिलाती हैं यह छुट्टियां. इसका क्रेज तो आर्ट वर्ल्ड में भी कम नहीं. आर्टिस्ट, स्टूडेंट्स और उनके टीचर्स काफी समय पहले से प्लानिंग शुरू कर देते हैं. इसके रीजन हैं, आर्टिस्ट इसे जहां एंजॉयमेंट के साथ ही कला सृजन का मौका मानते हैं, वहीं टीचर्स के लिए यह करियर और विजन एडवांसमेंट का जरिया है. आर्टिस्ट्स को कला रचने के लिए माहौल मिलता है, टीचर्स खुद को अपडेट करते हैं और स्टूडेंट्स महारथियों से सीखने के लिए आतुर रहते हैं. उन्हें वो प्रैक्टिकल टिप्स मिल जाती हैं जो क्लासरूम्स में पॉसिबिल नहीं. सीधी सी बात है कि लैंडस्केप को किसी इमेज से देखकर बनाना उतना इंट्रेस्टिंग नहीं जितना किसी हिल्स एरिया में जाकर. पहाड़ों का अलग मजा है, इसलिये काम का काम और ऊपर से फुलटॉस मस्ती. स्टूडेंट्स ग्रुप्स बनाकर ऐसे समर कैंप्स और वर्कशॉप्स में हिस्सा लेते हैं. आगरा से आकर बनारस में पढ़ रहा मेरा एक स्टूडेंट दोनों शहरों के अपने दोस्तों को लेकर कैंप्स में पार्टीसिपेट करता है. स्टेट कैपिटल्स रांची, पटना और<br />लखनऊ की तो बात ही क्या, जहां से ट्रेन के सीधे लिंक्स हैं और आर्ट स्टूडेंट्स की संख्या काफी है. कला की इस दुनिया में तो गोरखपुर, आजमगढ़, अलीगढ़ जैसे शहरों के स्टूडेंट्स भी प्लानिंग में पीछे नहीं. गाजीपुर में भी एक कैंप होता है जहां नदी पर रेत के किनारे आर्टिस्ट काम करते हैं और स्टूडेंट्स उनके काम से बारीकियां सीखते हैं. मेरे पास इन्फॉर्मेशन है कि इस बार नैनीताल, अल्मोड़ा, शिमला, मैक्लोडगंज जैसे हिल सिटींज़ पर आर्टिस्ट कैंप आर्गनाइज किए गए हैं. पार्टीसिपेशन पर पैसा चाहें ज्यादा न मिले, लेकिन आर्टिस्ट आम तौर पर ऐसे मौके छोड़ते नहीं. ग्रुप-वाई यानि यंग ग्रुप में शुमार विभिन्न शहरों के स्टूडेंट्स कंट्रीब्यूट करके हर साल कई कैंप्स और वर्कशॉप्स कराते हैं. खर्च ज्यादा न हो, इसके लिए एक आर्टिस्ट को रिसोर्स पर्सन के तौर पर बुला लिया जाता है और कई दिन तक चलता रहता है सीखने का सिलसिला. कुछ वर्कशॉप्स में तो न्यू कमर्स अपना पैसा देकर पार्टीसिपेट करते हैं. दिल्ली के इंडिया हैबिटेट सेंटर में आने वाले दिनों में होने वाली एक वर्कशॉप ऐसी ही हैं. स्टूडेंट्स चाहते हैं कि बड़े कलाकारों से वह सीखें. स्टूडेंट्स का<br />उत्साह मुझे तो इतना अच्छा लगता है कि मैं अपने खर्च पर उन्हें सिखाने में भी नहीं हिचकती. मेरा अपना एक्सीपीरिएंस है कि ऐसी वर्कशॉप्स स्टूडेंट लाइफ में बहुत प्रॉफिटेबल साबित होती हैं. कभी-कभार क्लासरूम्स में स्टूडेंट्स का कन्फ्यूजन प्रैक्टिकल ट्रेनिंग में दूर हो जाता है. हरियाणा में ऐसी एक वर्कशॉप बहुत सक्सेसफुल साबित हुई, जहां स्टूडेंट्स ने मिले सबक तत्काल ही कैनवस पर खूबसूरती से उकेर दिए. मेरठ में हुई एक वर्कशॉप में एमीनेंट आर्टिस्ट को बुलाया गया था, वहां टीचर्स ने भी स्टूडेंट्स की तरह सीखा और अपने एक्सपीरिएंसेज शेयर किए. खूब मजा आया. स्टूडेंट्स को लगा कि सीखने में जो कसर बाकी थी, वह पूरी हुई. खूब क्वेश्चन-आंसर्स भी हुए. कभी-कभी एक-दूसरे की टेक्निक्स देखकर कुछ नया उभर आने की पॉसिबिलिटी बन जाती है. सच में, बहुत यूजफुल हैं ऐसे इवेंट्स.Uttamahttp://www.blogger.com/profile/02850421830553640513noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3096133054268368082.post-64885947010748359732011-05-06T09:12:00.002+05:302011-05-06T09:16:31.926+05:30अब लाइव भी है आर्ट वर्ल्ड<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi0xe_7ptPfFRQxLa2z9M7gSeHNEGvP2JEhf20CaPEj9FvlPZ1N9g5Az5i4YBgV7yGIRxEqffQQ_JYH0zPKAlD6IYr_wXDOBlacUi_llwFtti1Uf4Al3kF2Dm_jLgGIxWXiYIV7c80Z6Q/s1600/graphic-artdesign-multimedia.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 200px; height: 142px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi0xe_7ptPfFRQxLa2z9M7gSeHNEGvP2JEhf20CaPEj9FvlPZ1N9g5Az5i4YBgV7yGIRxEqffQQ_JYH0zPKAlD6IYr_wXDOBlacUi_llwFtti1Uf4Al3kF2Dm_jLgGIxWXiYIV7c80Z6Q/s200/graphic-artdesign-multimedia.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5603444445947241362" /></a> इसे कहते हैं, हमने आकाश को अपनी मुठि्ठयों में कैद कर लिया. नए जमाने के आर्टिस्ट्स ने आर्ट में भी इस तरह के एक्पेरिमेंट्स किए कि आर्ट जो कल तक मुश्किल से सुलभ थी, आज नए रंग-रूप और कलेवर में सामने है. आश्चर्यचकित<br />होने की तो बात ही है कि हर घटना को लाइव देखने की हमारी आदत ने आर्ट वर्ल्ड को भी लाइव कर लिया. मल्टीमीडिया का इतना प्रयोग शुरू कर दिया कि पेंटिंग्स के आगे का जहां भी दिखने लगा. हाल इस तरह के हैं, नए जमाने के साथ जो कलाकार नहीं चले, वो खुद को पिछड़ा हुआ फील करने लगे हैं. आर्टिस्ट आर्ट या किसी और की भी, हर डेफीनेशन में कैनवस का जिक्र जरूर चाहता है क्योंकि कैनवस है तो पेंटिंग है. पेपर या किसी भी और मीडियम को डिटेल्ड मीनिंग में कैनवस से एड्रेस किया जाता है. यह पुराना पैटर्न है जिसमें पेंटिंग को अपनी आंखों से देखा और महसूस कर लिया. लेकिन अब एक और रास्ता भी है क्योंकि कला की दुनिया भी नए कैनवस तक पहुंच चुकी है. जब हर जगह टेक्निक पहुंच रही है तो यहां भी तो आनी थी ही. इंटरनेट से देख-सीखकर नए जमाने के स्टूडेंट्स ने आर्ट को इस नए रास्ते पर पहुंचा दिया जहां आर्ट की बेसिक चीजें कैनवस, ब्रश और कलर्स सब-कुछ है लेकिन इन्हें शूट किया जा रहा है, लाइव दिखाया जा रहा है और लोग पसंद भी कर रहे हैं. कला अब आसानी से सबके सामने है. खुलेपन और एक्पेरिमेंट्स के लिए फेमस इस वर्ल्ड ने नए रास्ते को बहुत जल्दी एक्सेप्ट कर लिया है. एक्जीबिशन लगाइये या फिर मल्टीमीडिया प्रजेंटेशन से ही काम चला लीजिए. जाइये लोगों को यह प्रजेंटेशन दिखाइये और कमा लीजिए. मल्टीमीडिया के यूज ने स्टैब्लिश्ड आर्टिस्ट्स के लिए भी यह जरूरी कर दिया कि वह सीखें और एक्जीबिशन में अपनी कला का वीडिया प्रजेंटेशन भी करें. दिल्ली-मुंबई की अब सभी प्रमुख गैलरीज में एक्जीबिशन के पूरे टाइम आर्टिस्ट के वर्क का वीडियो या पॉवर प्वाइंट साथ में चलता रहता है. इंस्टॉलेशन के साथ वीड़ियो इंस्टालेशन भी चल रहा है. जो बचना चाहते थे, उन स्टूडेंट्स के लिए भी अपडेट होना जरूरी है. पीजी कोर्स में उनका काम सिर्फ पेंटिंग्स के फोटोग्राफ्स दिखाकर नहीं चल रहा. अब उन्हें भी पॉवर प्वाइंट प्रजेंटेशन देना होता है. आर्टिस्ट खुद को अपने स्टूडियो में काम करते दिखाते हैं. इसके प्रोफिट्स भी है, यह प्रजेंटेशन उन्हें बाद में स्टैब्लिश होने में मदद करेंगे. स्टूडेंट्स इसे खूब एंन्जॉय भी कर रहे हैं. अपने स्टूडियो में काम करते वक्त वह वीडियो शूट कराते हैं और देखने वाले को अपने काम की हर बारीकी से समझाना उनके लिए आसान हो जाता है. इस वीडियो को आर्ट रिलेटिड वेबसाइट पर अपनी प्रोफाइल के साथ अपलोड करने का भी आप्शन मिल जाता है. मुंबई की एक फेमस गैलरी में अमेरिकन आर्टिस्ट की एक एक्जीबिशन से शुरू हुआ यह नया सफर खूब रंग दिखा रहा है. स्टूडेंट्स, आर्टिस्ट्स के साथ ही आर्ट लवर भी इसका भरपूर आनंद ले रहे हैं. इतनी तेजी से अपडेट होती है, तभी तो कला की दुनिया आज भी लोगों को खूब आकर्षित करती है.Uttamahttp://www.blogger.com/profile/02850421830553640513noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3096133054268368082.post-27433563243741587872011-03-24T13:48:00.003+05:302011-03-24T13:52:09.770+05:30रेखाओं की दुनिया...<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg3G7lr4p5wO-m1VuDXSO-4RUfGgjR7xnX61Pue0tGR1-X-AX6J_abED-5rX2NwXdthGxPXHhyphenhyphenELrUy3BtlAuAEN046E8_H8TFxO2pdL8NLZdvR88EL4xFCv4UogLMVHPyGoSllb0S8cw/s1600/nand+lal+bose1.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 129px; height: 200px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg3G7lr4p5wO-m1VuDXSO-4RUfGgjR7xnX61Pue0tGR1-X-AX6J_abED-5rX2NwXdthGxPXHhyphenhyphenELrUy3BtlAuAEN046E8_H8TFxO2pdL8NLZdvR88EL4xFCv4UogLMVHPyGoSllb0S8cw/s200/nand+lal+bose1.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5587558588197274866" /></a> यह आड़ी-तिरछी, गोल-चौकोर यानि तरह-तरह की रेखाओं की बात है जो मिलकर आर्ट बनती हैं. शुरुआत में आर्टिस्ट इन्हीं रेखाओं को कला कहते रहे, फिर उनमें रंग भरा और कला की यह दुनिया रंगीन हो गई. रंग और रूप तभी आया जब रेखाओं से चित्र को आकार मिला. खास बात यह है कि जो आंखें कला की शान में कसीदे पढ़ने में तल्लीन होती हैं, उन्हें रेखाएं कभी-कभी दिखती तक नहीं. नवोदित से लेकर एक्सपर्ट आर्टिस्ट तक सब ज्यादातर इन्हीं रेखाओं के सहारे कला सृजन करते हैं. सच में लाइन्स यानि ड्राइंग का खेल है आर्ट का पूरा वर्ल्ड. यही स्केच वर्क सक्सेस का रास्ता भी है. मेरे लिए इस बार ड्राइंग की बात करना जरूरी है क्योंकि एक्जामिनेशन सीजन है. डेली प्रैक्टिस के बगैर कोई स्टूडेंट न तो यहां सक्सेस पाएगा और न ही, आर्ट फील्ड में स्टैब्लिश होगा. इसके साथ ही तमाम यूथ्स तैयारी में होंगे कि नया सेशन शुरू हो और हम भी आर्टिस्ट बनने की दौड़ में उतर जाएं. कला की फील्ड में आने वाले के लिए यह जरूरी है कि वह लाइन्स रचने में कमांड पाए हुआ हो. फिर कला के चाहने वालों के लिए भी यह जानना बेहद जरूरी है कि यह रची कैसे जाती है. आप करोड़ों की आर्ट खरीदकर ड्राइंग रूम में सजाएं पर जाने नहीं कि इससे पीछे कितनी मेहनत हुई है, क्या टेक्निक यूज हुई है और कलर्स कैसे इधर-उधर फैल नहीं रहे, तो आपको खुद भी शायद ही अच्छा लगे. कला की दुनिया में बिन लाइन्स सब सून. इंडिया हो या चाइना, लगभग सभी एशियन कंट्रीज की आर्ट में रेखांकन यानि ड्राइंग का इम्पॉर्टेंट रोल है. दरअसल, यही लाइन्स एशिया और यूरोप की आर्ट को डिफरेंशिएट कराती हैं. यूरोपियन आर्ट में कलर और हमारे यहां ड्राइंग को प्रॉयर्टी का रिवाज है. ट्रेन में ट्रेवल करते या किसी हिल स्टेशन पर लैंडस्केप पेंटिंग्स रचते वक्त आर्टिस्ट इसी ड्राइंग से अपनी कृति की शुरुआत करता है. लगातार चित्र बनाते-बनाते हुई ऊबन में कोई आर्टिस्ट अलग-अलग पेपर्स पर ड्राइंग शुरू कर देता है. आर्ट की दुनिया में कहा जाता है कि डेली रुटीन में ड्राइंग किए बिना ब्रश पर कमांड आ पाना पॉसिबिल ही नहीं. मकबूल फिदा हुसैन लाइन्स के मास्टर हैं. नन्दलाल बोस, बिनोद बिहारी मुखर्जी, राम किंकर बैज और न जाने कितने ओल्ड मास्टर हैं जो लाइन्स को अपनी आर्ट की पहचान बनाकर फेमस हो गए. आर्ट की फील्ड में नए-नए एक्पेरीमेंट हुए पर उन्होंने ड्राइंग नहीं छोड़ी. रविंद्र नाथ टेगोर ने भी खूब ड्राइंग कीं. उन्होंने तो जो एक्स्प्रेशन पेन और इंक की इन लाइन्स से दिखाए, वे प्रैक्टिस आर्ट न होकर पूर्ण कलाकृतियां कहलाने लगीं. लाइन्स के जरिए हम कलाकार बहुत-कुछ दिखा सकते हैं. कलर्स का चुनाव सही हो तो पेंटिंग कमाल की बनती है. कलाकारों की चलती-फिरती, सरपट दौड़ती, उमड़ती-घुमड़ती और रेंगती यही लाइन्स हैं जो पेंटिंग्स में भाव पैदा करती हैं. हम इन्हीं से इमोशंस दिखाते हैं और यही दुख-सुख, नेचर, नदी की लहरों के रूप में आनंद और बहुत-कुछ... कैनवस पर उभारने में कामयाबी दिलाती हैं. आर्ट मार्केट का मौजूदा ट्रेंड भी ड्राइंग की तरफ है. स्टूडेंट स्केच वर्क के जरिए अपना खर्च निकाल रहे हैं. शहरों में रिवर्स और मॉन्यूमेंट्स के स्केच बनाते इन यूथ्स की भीड़ दिनभर नजर आती है. आर्ट स्कूलों में उन्हें स्केच में एक्पर्ट बनाने की कवायद पर ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है. ड्राइंग आर्ट की वह रोड है जो हमेशा भीड़ से भरी रहती है. यह जरूरी है और इसमें मौके हैं. आसानी से सुलभ, आकर्षक होने के साथ ही ज्यादा महंगी न होने की वजह से यह आर्ट हर वर्ग की पसंद है यानि इस रोड पर चलना डबल फायदे की बात है.Uttamahttp://www.blogger.com/profile/02850421830553640513noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3096133054268368082.post-76801276294536073552011-03-11T08:22:00.004+05:302011-03-11T08:31:03.642+05:30ब्रश के बिना भी आर्ट वर्ल्ड !<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgk68Vwyej4AN1tJpP_mLag2TBHobXc4YSMh7Q2kGlE3iSHm6XxjLsOO5_1kUHp-qvnYlKb9xHemyYGp4q8Ved0LnnuvX22op7-rCeuNfP2_sL0o9bXtWZQdj5VoNOLHo8iyx3vaFXbEg/s1600/lines_uttama+dixit.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 198px; height: 200px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgk68Vwyej4AN1tJpP_mLag2TBHobXc4YSMh7Q2kGlE3iSHm6XxjLsOO5_1kUHp-qvnYlKb9xHemyYGp4q8Ved0LnnuvX22op7-rCeuNfP2_sL0o9bXtWZQdj5VoNOLHo8iyx3vaFXbEg/s200/lines_uttama+dixit.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5582651706918314018" /></a> देखते ही देखते चित्रकला की दुनिया कितनी आगे पहुंच गई. उम्मीद से तेज प्रोग्रेस हुई है इस फील्ड में. पहले मीडियम लिमिटेड थे, इमैजिनेशन को उनकी ही बदौलत आकार देना होता था पर अब मीडियम बहुत है. आप जिस पेंटिंग को देख रहे हैं, वह जरूरी नहीं कि महज ब्रश पर हाथों की कमांड का कमाल हो. हो सकता है कि उसे बनाने के लिए आर्टिस्ट ने ब्रश यूज ही नहीं किया हो बल्कि डिफरेंट टूल से वो पेंटिंग बनाई हो. पहले महीनों-बरसों भी लग जाते थे एक पेंटिंग के बनने में, वो पेंटिंग शायद बहुत कम समय में बनी हो. बड़े बदलाव आए हैं कला की दुनिया में. टेक्निक में प्रोग्रेस की जो खबरें पहले इंडिया आने मे बहुत देर ले लेती थीं, वह अब इंटरनेट की बदौलत कुछ मिनिट्स में सुलभ हैं. आर्ट वर्ल्ड में चेंजेंस का सबसे बड़ा रीजन भी यही है. करीब 12 साल पहले दिल्ली की एक गैलरी में एक्जीबिशन लगी थी, टॉपिक था चेंज इन द वर्ल्ड. आर्टिस्ट ने ब्रश का यूज किए बिना सारी पेंटिंग्स बनाई थीं पर ज्यादातर में हाथ का इस्तेमाल हुआ था. अंगुलियों से तरह-तरह की इम्प्रेशन देकर उसने अपनी कला सजाई थी. यह इंडिया के लिए नयी बात थी. इसके बाद आज तक तो जैसे सब-कुछ बदल जाने को बेताब है. <br />फेमस आर्टिस्ट रामेश्वर बरूटा अपनी पेंटिंग्स में एक-एक करके अलग-अलग रंगों की परत लगाते हैं और फिर, जो रंग चाहिये उसे खुरच कर निकाल लेते हैं ताकि पेंटिंग्स में कई लेयर्स के साथ ही मनचाहा कलर इफेक्ट आ जाए. ब्लेड्स इसके लिए यूज होते हैं. जयपुर के एक कलाकार ऐसी पेंटिंग्स बनाते हैं जिनसे तीन साल तक फूलों की तरह खुशबू निकलती रहती है. लंबे समय तक खुशबू के लिए वह मेंहदी, गुलाब और खस के सेंट का यूज करते हैं. आर्टिस्ट्स छोड़िए, आर्ट स्टूडेंट कमाल दिखा रहे हैं. कैम्लिन अवार्ड विनर स्टूडेंट ने अपनी पेंटिंग में छोटे बाथरूम वाईपर का यूज किया. इन्हीं अनूठे बदलावों का ही एक्जाम्पल है, धुएं से बनी पेंटिंग्स. इस तरह की पेंटिंग्स में रंगों और ब्रशों की बजाए लौ के ऊपर कैनवस को घुमाकर पेंटिग को बनाया जाता है. लय यानि रिदम का कमाल है यह पेंटिंग्स. इस तरह की पेंटिंग्स के लिए बहुत ज़रूरी होता है कि इन्हें एक ही बार में बना लिया जाए. हमेशा एलर्ट भी रहना पड़ता है कि कितनी लौ चाहिए. कभी-कभी तो कैनवस के जलने का भी ख़तरा रहता है. एक नवोदित कलाकार को मैं जानती हूं जो स्क्रबिंग ब्रश का भरपूर इस्तेमाल करता है. कैनवस पर पेंट करने के बाद वह इस ब्रश की सींकों से अलग इफेक्ट दिखाता है. एक स्टूडेंट ट्रांसपेरेंट टेप से कैनवस का वह हिस्सा छिपा लेता है जिस पर बाद मे उसे दूसरा रंग देना होता है. उसकी यह टेक्निक पानी पर बिखरे फूलों की शानदार पेंटिंग बना देती है. एक स्टूडेंट हाथ की अंगुलियो में तीन पेंसिल फंसाकर स्केच बनाता है और बाद मे उसमें रंग भरता है. म्यूरल इफेक्ट के लिए रंगों के गोलों को दूर से कैनवस पर फेंकना भी इसी तरह की टेक्निक है. फैन की तेज हवा, फाउंटेन पेन इंक के ड्राप्स, बाउल्स-स्पून्स औऱ न जाने क्या-क्या, आर्ट की दुनिया इस समय बदलाव की स्टोरी लिखने में लगी है. उसके नए मेंबर्स ज्यादा सोच और रच रहे हैं जो स्टैब्लिश्ड आर्टिस्ट्स के लिए चुनौती हैं. इसी का नतीजा है कि स्टूडेंट लाइफ में बात पॉकेट मनी और पढ़ाई का खर्चा निकालने से आगे बड़ी कमाई तक पहुंच गई है. स्टूडेंट्स अपना दम साबित कर रहे हैं, वह भी ऐसे नए आईडियाज को बदौलत.Uttamahttp://www.blogger.com/profile/02850421830553640513noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-3096133054268368082.post-49608784986551293762011-01-05T10:43:00.004+05:302011-01-18T12:58:32.864+05:30अनीश कपूर का आर्ट वर्ल्ड<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgVUXxoe_P0jvkFKnazS3MGEVdN1MqgxgllN7P03qY4sKXDDRyakcZo6W5HZ8e23yTNkz9zxsiQ7hz4H2kxRKZEgKJqNgPBI4N5SMjeuRpsvSBCcTil45-O6hsNX-nxLW6HHQHwJicUZg/s1600/Temenos-anish.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 200px; height: 125px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgVUXxoe_P0jvkFKnazS3MGEVdN1MqgxgllN7P03qY4sKXDDRyakcZo6W5HZ8e23yTNkz9zxsiQ7hz4H2kxRKZEgKJqNgPBI4N5SMjeuRpsvSBCcTil45-O6hsNX-nxLW6HHQHwJicUZg/s200/Temenos-anish.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5558566735182922866" /></a> इमेजिन कीजिए कि गोले की जगह एक तोप रंग बरसाए और एक ब्यूटीफुल आर्ट आइटम रच दे. लोग आएं और उससे रंग भरे गोले दागें और दीवार पर अनूठा म्यूरल बना दें या फिर, यह बड़े मिरर में आप किसी शहर की इमेज देख पाएं. सचमुच, प्राउड फील होता है कि इंडियन ओरिजिन का एक आर्टिस्ट लंदन में ऐसी कलाकृति बना रहा है जिसकी तुलना फ्रांस की आइफिल टॉवर से की जा रही है. नवंबर 2011 में यह टॉवर बनकर तैयार हो जाएगी यानि नए साल में हम इंडियन्स की सक्सेस स्टोरीज़ में एक पन्ना और जुड़ने वाला है. यह आर्टिस्ट जो जो-जो रच रहा है, वो आर्ट की हिस्ट्री में कभी देखने को नहीं मिला.<br />इस बार मैं लंदन बेस्ड इंडियन <a href="http://www.anishkapoor.com/">अनीश कपूर</a> की बात करने जा रही हूं. हाल ही में अनीश की दिल्ली की नेशनल गैलरी आफ मॉडर्न आर्ट और मुंबई के महबूब स्टूडियो में एक्जीबिशन हुई. यह वही आर्टिस्ट हैं तीन साल पहले जिनकी एक पेंटिंग आक्शन कंपनी सॉदबी ने 28 लाख डॉलर में बेची थी. वहां 2012 में होने वाले ओलंपिक गेम्स को यादगार बनाने के इरादे से दो करोड़ पाउंड की लागत से बन रही एक खास मीनार को डिजाइन करने वाले स्क्ल्पटर यही हैं. इसका नाम होगा आर्सेलर मित्तल ऑर्बिट. 115 मीटर ऊंची इस लोहे की मीनार के लिए पैसा इंडियन इंडस्ट्रिलिस्ट लक्ष्मीनिवास मित्तल देंगे और इसकी डिजाइन बनायी है अनीश ने. स्ट्रेटफर्ड एरिया में ओलंपिक स्टेडियम के पास बन रहे गीज़ा के पिरामिड जितनी हाइट वाले टॉवर पर दो रेस्त्रां होंगे और दो लिफ्टों से हर घंटे 700 लोग ऊपर बने पैवेलियन पर जा सकेंगे. इसमें 1400 टन स्टील यूज होगी. गर्व की बात यह भी है कि एंटनी ग्राम्ली जैसे मशहूर शिल्पकार इसे बनाने की रेस में शामिल थे. अनीश हिस्ट्री रच रहे हैं. उनकी आर्ट में वो एक्पेरिमेंट्स हैं जो पहले कभी नहीं हुए. उनका एक और वर्क एक मिरर है जो स्टील की बड़े साइज ट्रांस्पेरेंट लेयर्स से बना है जिन पर पॉलिश की गई है. दस मीटर डायमीटर के इस मिरर का वेट 23 टन है. इसे वह कई शहरों में एक्जीबिट कर चुके हैं. उन्हें 11 सितंबर 2001 को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमलों में मारे गए ब्रिटिशर्स की याद में एक मॉन्यूमेंट बनाने का भी काम सौंपा गया है. करीब साढ़े 19 फुट की यूनिटी नामक इस आकृति को हनोवर चौक के स्मारक पार्क में प्रमुखता से प्रदर्शित किया जाएगा. यह चौक न्यूयॉर्क के दो टॉवरों के नजदीक है. अनीश को स्थान और सामग्री के बेहतर कांबिनेशन के लिए जाना जाता है. आर्ट क्रिटिक्स मानते हैं कि उनकी कृतियों में द्वंद्वात्मक विशेषता झलकती है, जैसे प्रजेंस बनाम एब्सेंस, एक्चुअल बनाम इमेजनरी आदि. एक्जीबिशन के समय दिल्ली की गैलरी में अनीश पर चल रही एक डॉक्यूमेंटरी से मुझे भी पता चल रहा था कि एक आर्टिस्ट का इमेजिनेशन कहां-कहां तक पहुंच सकता है. मैनहट्टन के इंस्टॉलेशन में उन्होंने एक तोप रखी, जिसमें रंगों से भरे गोले लोड किए जाते और दर्शक आते और उन्हें दागते. इसके बाद दीवारों पर रंगों का एक अजूबा म्यूरल उभर आता. इंडियन विजुअल आर्ट में ‘ऐतिहासिक और पारंपरिक कलाओं’ की जगह ‘पॉप कल्चर और एब्स्ट्रेक्ट आर्ट’ का फेवर लेने वाले मुंबई में जन्मे इस आर्टिस्ट ने मिरर्स का कई बार यूज किया है. उनकी कृति सी मिरर में प्लेटफॉर्म पर लगे एक मिरर से समुद्र का नज़ारा दिखता है. मिरर हेवेन में अनूठी इमेजेस रची गई हैं. टेमेनॉस में उन्होंने समुद्र किनारे बनाए इंस्टॉलेशन में एक नेट को आयरन पोल पर कसा गया है. अनीश ने आर्ट की डेफिनेशन को ही बदल दिया है, उनकी विशाल कृतियों में आर्ट के साथ आर्किटेक्चर घुलामिला है. गैलरी में रखी कमेंट बुक बता रही थी कि उनसे इंप्रीरेशन ले रही नई जेनरेशन के पास भी ऐसे आईडियाज हैं. मतलब यह है कि अनीश जैसों के शुरू किए एक्पेरिमेंट्स का सिलसिला लंबा चलेगा जो आर्ट वर्ल्ड के लिए आनंद की वजह बनता रहेगा.<br /><br /><span style="font-weight:bold;">यहां देखें मेरा यह आलेखः-</span><br /><a href="http://www.inext.co.in/epaper/inextDefault.aspx?pageno=16&editioncode=1&edate=1/5/2011">http://www.inext.co.in/epaper/inextDefault.aspx?pageno=16&editioncode=1&edate=1/5/2011</a>Uttamahttp://www.blogger.com/profile/02850421830553640513noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3096133054268368082.post-36162041880794141652010-12-04T18:06:00.005+05:302010-12-04T18:34:29.484+05:30मेरी कलाकृतियां ..अहा जिंदगी.. में<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjBa3BJe9GCFzihEvakEPd8J9qUuWpvpiacx557LBrurLePkatzZUyDUzqZoBySKKCm1vWUMHoN0wQU9J-KQrKzI5Cct_Ig7dG4i1S63ZyPJ8VpYM_RChBg7hyZbCgUj0dVG0WtZt0KYA/s1600/28.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 146px; height: 200px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjBa3BJe9GCFzihEvakEPd8J9qUuWpvpiacx557LBrurLePkatzZUyDUzqZoBySKKCm1vWUMHoN0wQU9J-KQrKzI5Cct_Ig7dG4i1S63ZyPJ8VpYM_RChBg7hyZbCgUj0dVG0WtZt0KYA/s200/28.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5546812122920868114" /></a> देश की सर्वाधिक प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में शुमार ..अहा जिंदगी.. के दिसम्बर 2010 अंक में भी मेरी कलाकृतियां प्रकाशित हुई हैं। शुरुआत हुई है पृष्ठ संख्या 10 से, जहां आवरण कथा के साथ मेरी वुमैन सीरीज की एक पेंटिंग प्रकाशित है। ख्यातिलब्ध साहित्यकार मैत्रैयी पुष्पा के लेख ..बंदिशें और सामंती शिकंजे टूट रहे हैं.. के साथ इसी सीरीज की मेरी दूसरी पेंटिंग है। यह सीरीज मैंने हाल ही में इलाहाबाद संग्रहालय, इलाहाबाद में केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय द्वारा प्रायोजित अपनी प्रदर्शनी के लिए बनानी शुरू की थी। खास तौर से अहा जिंदगी के लिए बनायी पेंटिंग्स के साथ इस सीरीज में कुल पेंटिंग्स की संख्या अब 16 हो गयी हैं, जिनमें मैंने एक औरत के अलग-अलग मूड्स प्रदर्शित किए हैं। आवरण कथा के ही दूसरे आलेख में सुप्रसिद्ध लेखिका अनामिका के लेख के साथ मेरी इस सीरीज की तीसरी पेंटिंग छपी है। अगले पृष्ठ पर ..गार्गी ने सदियों पहले एक परंपरा तोड़ी थी.. के साथ मेरी चौथी पेंटिंग है। इस प्रतिष्ठित पत्रिका ने मुझे यह मौका दूसरी बार दिया है। इससे पहले नवम्बर अंक में साहित्यकार प्रतिभा कटियार की कहानी .. अमलताश होती लड़की की कथा.. के साथ मेरी नेचर सीरीज की पेंटिंग प्रकाशित हुई थीं। दिसम्बर अंक में आपकी चिट्ठियां कॉलम में प्रतिभा जी की कहानी की सराहना करने वाला उदयपुर (राजस्थान) निवासी इमरान खान का जो पत्र छपा है, उसके साथ भी मेरी यह पेंटिंग प्रकाशित हुई है। दैनिक भास्कर समाचार पत्र समूह की यह पत्रिका हिंदी जगत की सर्वाधिक लोकप्रिय साहित्यिक पत्रिका है। यह पत्रिका उन क्षणों में साथ देती है जब मन में कहीं निराशा जग जाए, और यह निराशा तो हर व्यक्ति में कभी न कभी जगती ही है। यह जीवन के उल्लास से आपका दोबारा परिचय कराने लगती है। इसलिये भी, मैं इसकी फैन हूं। बिल्कुल अलग शैली की इस पत्रिका की मैं पिछले छह साल से नियमित पाठक हूं। ऐसे में यहां अपनी कलाकृतियों को प्रकाशित देखकर मैं प्रफुल्लित हूं। <br /><br />यहां देखें अहा जिंदगी-<br /><a href="http://www.bhaskar.com/magazine/aha-zindagi/">http://www.bhaskar.com/magazine/aha-zindagi/</a>Uttamahttp://www.blogger.com/profile/02850421830553640513noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-3096133054268368082.post-82349079770900371592010-12-02T08:52:00.005+05:302010-12-02T09:18:41.390+05:30इंस्टॉलेशनः नए ज़माने की कला<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgkPKTIjnKTLXy1MHENFHcnZdkjkePSQ7BYhyphenhyphenHAzTS8__oBThQ_hslbBWtRt6S85sYQ-xVqYBnhJPniwMSVJm2o2djqZ5MiXsnPoTDOAcrBnUH5Hdxb8NmnNbrHSs7az6x7FD_x-K181A/s1600/light-artist+hosier+la.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 200px; height: 150px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgkPKTIjnKTLXy1MHENFHcnZdkjkePSQ7BYhyphenhyphenHAzTS8__oBThQ_hslbBWtRt6S85sYQ-xVqYBnhJPniwMSVJm2o2djqZ5MiXsnPoTDOAcrBnUH5Hdxb8NmnNbrHSs7az6x7FD_x-K181A/s200/light-artist+hosier+la.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5545924482158307346" /></a> यह कला का बिल्कुल अनूठा रूप है जिसे इंस्टॉलेशन कहा जाता है। नए जमाने की कला, मुश्किल लेकिन सफलता की गारंटी। भारत हो या विदेश, सभी जगह चलन में आ रहा है इंस्टॉलेशन। छोटे-बड़े सभी आर्टिस्ट या तो हाथ आजमा चुके हैं या योजना बनाने में जुटे हैं। अजब-गजब इस कला के चाहने वालों की संख्या में होती तेज वृद्धि बताती है कि आम-खास सभी कलाप्रेमी इसे अपना चुके हैं। यह पेंटिंग की तरह टू नहीं बल्कि थ्री डायमेंशनल आर्ट है और यह उन चीजों से भी बनाया जा सकता है जिसे बेकार मान लिया गया हो। आज आर्ट की परिभाषा बदल गई है, उसे बनाने और दिखाने का तरीका भी बदला है। रचनात्मकता कला का मूल है जिसके बिना कला संभव ही नहीं। कलाकार जो देखता है, वही रचे तो हो सकता है कि कहीं नीरसता आ जाए इसलिये उसे अपनी कल्पनाशक्ति से कंटेंट डालने होते हैं। पुराने समय में पौराणिक पात्रों पर बनी पेंटिंग्स को याद कीजिए, यदि प्रकृति के कुछ अवयव नहीं डाले गए होते तो क्या यह पेंटिंग्स इतनी खूबसूरत बनतीं और लोग पूजा-पाठ तक में उनका प्रयोग करते? आर्टिस्ट की रचनात्मकता ने ही उन्हें इतना खूबसूरत बनाया। <br />इंस्टॉलेशन भी इसी रचनात्मकता का नतीजा है। कला की आर्ट की नई परिभाषा से ही पैदा हुए इंस्टॉलेशन में आर्टिस्ट वीडियो, पेंटिंग और स्कल्पचर आर्ट को मिला देता है। वह कुछ भी दिखा सकता है झोपड़ी, बर्तन, कारें, साइकिल लेकिन इनके म़ॉडल नहीं बल्कि वास्तविक वस्तुएं यानि असली झोपड़ी या कारें या कोई भी ऐसी वस्तु। जहां कई कलाएं मिल जाएं, वहां इंस्टॉलेशन आर्ट जन्म लेती है। कहा जाता है कि यह मीडियम उन लोगों के लिए ज्यादा मुफीद है जो अपनी बात को पेंटिंग या स्कल्पचर में बेहतर तरीके से नहीं कर पाते। लंदन के एक शॉपिंग सेंटर में आर्ट के लिए करीब पांच सौ लोग न्यूड हो गए। न्यूयॉर्क के आर्टिस्ट स्पेन्सर ट्यूनिक के इस इंस्टॉलेशन का मकसद था लोगों को दिखाना कि हम जो चाहें करें तो तनावभरे जीवन को अलविदा कहा जा सकता है। इनमें ज्यादातर लोग युवा थे। इसी तरह पांच से 95 साल की उम्र के 240 लोग मूर्तिकार एंथनी गोर्मली के लिए अपने शरीर को एक प्लास्टिक की पतली चादर से लपेटने को तैयार हो गए थे। प्रसिद्ध कलाकार मकबूल फिदा हुसैन भी सिर्फ कागज ही कागज बिखेरकर श्वेतांबरी नामक इंस्टॉलेशन बना चुके हैं। विवान सुंदरम तो इंस्टॉलेशन आर्ट में इतने रम गए कि पेंटिंग करना छोड़ ही दिया। विवान ने बाबरी मस्जिद के ढहने पर मेमोरियल नाम से स्कल्पचर और फोटोग्राफ्स का एक इंस्टॉलेशन बनाया। रणवीर सिंह कालेका, सुबोध गुप्ता और नलिनी मलानी भी पूरी तरह इसी फील्ड में उतर चुके हैं। दिल्ली में हुई एक प्रदर्शनी में आर्टिस्ट ने अपना इंस्टॉलेशन 'दादी मां का अचार' एक्जीबिट किया। इंस्टॉलेशन में तीन तलों की मेज पर शहरी दुनिया की चीजें बॉक्स, सेलफोन, कंप्यूटर आदि को एक बोतल में बंद कर यह संदेश दिया गया कि आज का जीवन पूरी तरह मशीनों और इलेक्ट्रॉनिक डिवाइसों में उलझ चुका है। एक अन्य इंस्टॉलेशन में एक टेंट है जिसमें मधुमक्खियों का छत्ता और एक लैपटॉप है, एक आदमी लेटकर पुस्तक पढ़ रहा है। मंशा है जीने का अंदाज दिखाने की। मधुमक्खी का छत्ता एकजुटता और संयुक्त परिवार के लाभ बताता है जबकि लैपटॉप अकेलेपन को दर्शा रहा है। बड़े शहरों में बढ़ती भीड़ की परेशानी दिखाने के लिए एक आर्टिस्ट ने इंस्टॉलेशन बनाया जिसमें मशीनें हैं, और हैं पसीने से तरबतर लोग। इनमें लगी बहुत सी चीज़ें घूमती हैं और तरह-तरह की आवाजें निकालती हैं तो लगता है जैसे शहर का कोई हिस्सा जीवंत हो उठा है। शोर से परेशान आदमी के कान कागज लगाकर बंद कर दिए गए हैं। दिल्ली में ऐसी ही एक और एग्जीबिशन लगाने वाले एक आर्टिस्ट का कहना था कि तमाम चीजों के आपस में मिलने से कला का कैनवस बड़ा हो गया है और चीजें आपस में सिकुड़ गई हैं। हम ऐसे समय में जी रहे हैं, जहां दुनिया कभी भी ठप हो जाए। ऐसे में हम 19वीं सदी के रोमांस को लेकर क्यों जीएं? बिल्कुल सच है यह। आर्ट ने तो वैसे भी अनूठी और रोचक दुनिया रचने का कारनामा कई बार कर दिखाया है और इस बार वह हकीकत से रूबरू कराने का काम बखूबी कर रही है। नई पीढ़ी के कलाकारों क रुचि और कलाप्रेमियों के रुझान से तो यही लगता है।Uttamahttp://www.blogger.com/profile/02850421830553640513noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3096133054268368082.post-18482271813354084682010-11-23T08:34:00.006+05:302010-12-02T09:22:20.855+05:30इन गलियों में भी बसती है कला...<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiLY98pgiSjI7abTBV6ORd4Dsxop27FYc217ZuqrDTw_CP9f_3TG-lfr4r-kzGc5CjvXx6HDaNgM0b79fPH-z2hW8n-RlEK2VkMJcX0s3ZLy4V1PvPlhnNHKCEjC5JKC1FAqY1NulfLRA/s1600/chhatisgarh.kalajagat.blogspot.com.JPG"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 200px; height: 150px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiLY98pgiSjI7abTBV6ORd4Dsxop27FYc217ZuqrDTw_CP9f_3TG-lfr4r-kzGc5CjvXx6HDaNgM0b79fPH-z2hW8n-RlEK2VkMJcX0s3ZLy4V1PvPlhnNHKCEjC5JKC1FAqY1NulfLRA/s200/chhatisgarh.kalajagat.blogspot.com.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5542579416111438018" /></a> यह गलियां जनजातियों की बसावट वाली है। गंदी और सामान्य जन सुविधाओं के अभाव से त्रस्त इन गलियों की कला अलग पहचान है। कला और इन जनजातियों के बीच सनातन सम्बन्ध है। पुरातन कला की जब भी बात होती है तो जनजातियों का जिक्र जरूर आता है। और तो और... भारत की सांस्कृतिक धरोहरों का उल्लेख हो और जनजातियों की भूमिका न देखी जाए, यह भी संभव नहीं। अंधाधुंध आधुनिकीकरण के दौर में आज भी इन जनजातियों की कला जीवित है। समृद्ध भारतीय संस्कृति में इन जनजातियों की बड़ी भूमिका है। मैंने जनजातियों की कलात्मक पहचान पर एक शोध किया है। करीब ढाई साल की अवधि में हुए इस शोध के दौरान मैंने उन तमाम शहरों का दौरा किया जहां जनजातियां रहती हैं और जीवन-यापन के लिए ही सही, कला सृजन में जुटी हैं। इन जनजातियों के रहन-सहन देखकर प्रतीत होता है कि भारत कला के मामले में उससे ज्यादा समृद्ध है जितना नजर आता है। इन जनजातियों की रग-रग में कला है। त्यौहारों और सामाजिक समारोहों में यह जो कला रचते हैं, वह भारत की पुरातन कलाओं में से एक है। शहर जब इतने विकसित नहीं हुए थे, तब उसमें में भी यह कलाएं दिखती थीं। घरों में महिलाएं गोबर से लीपती थीं, दरवाजे और दीवारों पर घर में ही रामरज और हल्दी जैसी आसानी से मिल जाने वालीं वस्तुओं से विभिन्न आकृतियां उभारती थीं। समय बदला और इन आकृतियों की जगह कैलेंडरों और अन्य प्रकाशित चित्रों ने ले ली। परंतु जनजातियों ने यह सब नहीं छोड़ा। महंगाई की मार से यह भी बेहाल हैं लेकिन कलाएं अब भी रचती हैं। बेशक, कहीं-कहीं गरीबी की वजह से हल्दी जैसी वस्तुओं की जगह सस्ते पीले रंग और यहां तक कि चिकनी मिट्टी तक ने ली है। पहले यह लोग सुतली के मंथकर किसी महिला की गुंथी चोटी की तरह बनी बेलों से अपनी बनाई डलियों को सजाते थे। अब रंग-बिरंगे कागजों से यह काम कर रहे हैं। हालांकि पहले मंथी हुई सुतली से सजी डलिया भी बन रही हैं और उन्हें ज्यादा दाम मिल रहा है। समस्या यह है कि उन डलियाओं को बनाने के लिए कच्चा माल मिलने में मुश्किल आती है क्योंकि यह रंगीन कागजों से महंगा है। इसी तरह लघु उद्योगों में बन रहे आकर्षक दौने-पत्तलों से इनकी रोजी-रोटी बुरी तरह प्रभावित हुई है। इन जनजातियों के बनाए दौने-पत्तल पहले शहरों की दावतों में भी खप जाते थे पर अब महज कुछ गांवों में ही बिक पाते हैं। इनके कुछ परिवारों ने इसे चुनौती के रूप में लिया और किनारे धागों से सजाकर पत्तल और दौने सुंदर बना दिए। कूंचे के रूप में मशहूर इनकी बनाई झाड़ू आज भी खूब प्रयोग हो रही है। सींकों की झाड़ू भी ज्यादातर यही परिवार बना रहे हैं जो व्यापारी सस्ते दामों में खरीदकर बाजार तक पहुंचा देते हैं। और भी तमाम तरह की कलाएं हैं यहां। ढोलक भी यही लोग बनाते हैं। कलात्मक चटाइयां, बैल-गायों को बांधने वाली रस्सी, गांवों में दूध रखने के लिए प्रयोग होने वाले छींके इनके अन्य उत्पाद हैं।<br />यह जनजातियां देश के हर राज्य में मौजूद हैं लेकिन संख्या में ज्यादा नहीं। अकेले उत्तर प्रदेश की बात करें तो 1991 की जनगणना के अनुसार इनकी संख्या मात्र दो लाख 87 हजार 901 थी। 2001 में हुई जनगणना में राज्य की कुल जनसंख्या 16 करोड़ 60 लाख 52 हजार के आसपास मापी गई तब जनजातियों की संख्या में मामूली वृद्धि हुई थी। यह वृद्धि अन्य जातियों की वृद्धि की तुलना में बेहद कम थी। इसी राज्य के बाराबंकी जिले का उदाहरण लें तो पता चलेगा कि जिले में अन्य जातियों के मुकाबले यह महज 0.2 प्रतिशत थीं। संख्या में बढ़ोत्तरी की दर कम होने का अर्थ यह माना गया कि यह जनजातियां अब अपनी पहचान छिपाना ज्यादा पसंद करती हैं और साथ ही अपने परिवार के बच्चों के रिश्ते अन्य जातियों में करने को प्राथमिकता दे रही हैं। लेकिन जनजातियां जहां भी अधिक संख्या में रहती मिलती हैं, वहां लोककलाएं ढूंढने के लिए ज्यादा प्रयास नहीं करना पड़ता। इनके घर-घर में कलाएं हैं। घर में प्रवेश करते ही कला से जो साक्षात्कार शुरू होता है, वह जीवन-यापन का माध्यम जानने तक चलता रहता है। सरकारी योजनाओं का लाभ मिला है इन्हें लेकिन उतना नहीं, जितना जरूरी है। फिर भी उपलब्ध संसाधनों के जरिए ही यह अपनी कलाओं के संरक्षण में जुटी हैं। सरकारी सेवाओं में आरक्षण का प्रावधान होने के बावजूद यह जातियां उसका लाभ नहीं उठा पातीं क्योंकि शिक्षा का अभाव है। जनजातियों के बच्चे निर्धनता के चलते शुरू में ही स्कूल जाना बंद कर देते हैं। वजह यह है कि उन्हें अपने साथ ही परिवार का पेट पालना होता है। पहले यह जनजातियां सामाजिक रूप से उपेक्षा की शिकार थीं लेकिन कलाओं ने उन्हें अन्य जातियों से मिलने-जुलने का अवसर प्रदान किया। इसके बाद स्थितियां बदलने लगी हैं। अपनी कलात्मक पहचान की वजह से जनजातियों की सामाजिक समारोहों में भागीदारी होने लगी है। विवाह हो या संतान प्राप्ति के बाद अन्य कोई अनुष्ठान जैसा हर्ष का कोई मौका, हर जनजातियां समारोहों में सक्रिय भागीदारी करती हैं। मध्य उत्तर प्रदेश के जिलों में विशेष रूप से मैंने पाया कि समय का बदलाव पहचानते हुए कलाओं की अन्य और बिकाऊ शैलियां इन जनजातियों ने विकसित कर ली हैं हालांकि परंपरागत कलाएं भी त्यागी नहीं हैं। वह गांवों में ही सीमित नहीं रहे बल्कि शहरों में जाकर भी अपने उत्पाद बेच रहे हैं। कानपुर देहात के एक गांव में रहने वाले जौनसारी जनजाति के रामखिलावन के अनुसार, समाज में अनुसूचित वर्ग की जातियां तो हमें लगभग पूरी तरह स्वीकार करने लगी हैं। कई बार तो उच्च जातियां भी नहीं हिचकतीं। हमें सामाजिक समारोहों में विभिन्न कार्यों से बुलाया जाता है। भोजन आदि कराया जाता है, काम के बदले में धन भी मिलता है। सामाजिक ढांचे में उनकी स्वीकार्यता की बात यहीं खत्म नहीं होती। कई गांवों में उनके लड़के-लड़कियों का विवाह अन्य जातियों में भी हुआ है। यहां भी माध्यम बनी है कला। एक वैवाहिक रिश्ते का आधार महज इसलिये बन गया कि लड़की के पिता जो रस्सी बनाते थे, लड़का अपनी दुकान पर बेचा करता था। बाद में यह रिश्ता और मजबूत बन गया। उत्पादन और बिक्री बढ़ने से दोनों परिवार और समृद्ध हो गए। इस तरह की सफल कहानियां कई हैं जो अच्छे संकेत दे रही हैं कला संरक्षण के भविष्य का।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">यहां भी देखिए मेरा यह आर्टिकल-<span style="font-style:italic;"></span></span><br /><a href="http://vichar.bhadas4media.com/tera-mera-kona/799-2010-11-24-03-18-22.html">http://vichar.bhadas4media.com/tera-mera-kona/799-2010-11-24-03-18-22.html</a>Uttamahttp://www.blogger.com/profile/02850421830553640513noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-3096133054268368082.post-32103081010131287982010-10-06T09:16:00.006+05:302010-10-06T09:41:41.371+05:30आर्ट वर्ल्ड में करोड़ों की बात<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiCj13aq8-ZgcfIi8Mghgz7efnTe2MiIR0506aj1N-3L40a3aVK0r-hT0W_R6jRCNYHYY72A7XI0VZTJXihNF08qjiIekD9jvwfF_Tq_04HG-Ps8wnH-K6VWG13LbZBhE1TNNUXnxHKRA/s1600/shraza-saurashtra1.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 199px; height: 200px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiCj13aq8-ZgcfIi8Mghgz7efnTe2MiIR0506aj1N-3L40a3aVK0r-hT0W_R6jRCNYHYY72A7XI0VZTJXihNF08qjiIekD9jvwfF_Tq_04HG-Ps8wnH-K6VWG13LbZBhE1TNNUXnxHKRA/s200/shraza-saurashtra1.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5524780542148625042" /></a> आर्ट वर्ल्ड में एक बार फिर बूम है। रिसेशन के बाद आर्ट मार्केट ने उबरने में बेशक समय लिया, लेकिन सिचुएशन ज्यादा अच्छी हो गई। गैलरीज़ में भीड़ जुट रही है और इसीलिये, रिसेशन में कदम पीछे खींचने वाले आर्टिस्ट अपना काम निकाल रहे हैं। भरपूर काम है उनके पास, पैसा भी खूब मिल रहा है। पैसा ही इस दुनिया में सक्सेस का पैमाना है। प्रोफेशनल होकर बात की जाए तो करोड़ का आंकड़ा छूने वाले आर्टिस्ट यहां सबसे सक्सेसफुल है। लाख और हजार में अपनी कला की कीमत पाने वाले सेकेंड और थर्ड। ऊपर से बेहद छोटी सी दिखने वाली कला की दुनिया असल में बहुत बड़ी है और इतना ही बड़ा है आर्ट मार्केट। करोड़ों डॉलर्स का है इसका आकार और यह पूरी दुनिया में फैला है। बहुत कम लोग जानते होंगे कि अन्य बाजारों की तरह आर्ट मार्केट में भी बिजनेस स्टंट अपनाए जाते हैं। अन्य बाजारों की तरह यहां भी इंटरनेट जैसे एडवांस टूल यूज होते हैं। गैलरीज में आर्ट एग्जीबिशन से भी कमाई होती है। आर्टिस्ट भी अन्य बिजनेसमैन्स की तरह मार्केट पर नजर रखते हैं और स्टेटजी अपनाते हैं। सीधे खरीदने वाले बायर्स के अलावा उन तक आर्ट पहुंचाने वाले मीडिएटर्स भी होते हैं जो सेल में कुछ हिस्सा लेते हैं।<br />ऐसे में यह सवाल उठता है कि कला का मूल उद्देश्य क्या पैसा है? बिल्कुल नहीं, लेकिन आर्टिस्ट को भी तो जीना है। खास बात यह है कि आर्टिस्ट का कद उसकी कला की कीमत से होता है। हालांकि आज भी कई आर्टिस्ट पैसा कमाने के लिए नहीं बल्कि सैटिस्फैक्शन पाने को कला सृजन करते हैं पर मोस्टली इस विचार पर चलते हैं कि जीना है तो पैसा कमाना है और समझदारी से ज्यादा कमाई हो जाए तो इसमें हर्ज क्या है? फिर पेंटिंग की कॉस्ट से ही कद मापा जा रहा है तो यह सब मजबूरी भी हो जाता है। पेंटिंग्स की कीमत से हिसाब से एसएच रजा भारत के सबसे बड़े आर्टिस्ट हैं क्योंकि उनकी सौराष्ट्र टाइटिल वाली पेंटिंग 16 करोड़ 53 लाख में बिकी। एफएन सूजा सेकेंड और तैयब मेहता थर्ड हैं जिनकी पेंटिंग्स 11 करोड़ 25 लाख और आठ करोड़ 20 लाख में बिकी हैं। वूमैन आर्टिस्ट आफ द सेंचुरी अमृता शेरगिल की विलेज सीन 6 करोड़ 90 लाख में खरीदी गई। इंडियन पिकासो कहे जाने वाले मकबूल फ़िदा हुसैन का स्थान सातवां है। हुसैन की पेंटिंग बैटल बिटवीन गंगा एंड यमुनाः महाभारत की कीमत 6 करोड़ 50 लाख मिली है। इसी नजर से भारती खेर, वीएस गायतोंडे, सुबोध गुप्ता और जहांगीर सबावाला भी बड़े कलाकार हैं। यह सब टॉप टेन में हैं। सबावाला की एक पेंटिंग जून 2010 में एक करोड़ 17 लाख में बिकी है, रजा की सौराष्ट्र को भी इसी महीने में 16 करोड़ 73 लाख में बेचा गया। दोबारा बिक्री में 20 लाख अधिक मिले, इसलिये लोगों के लिए आर्ट आइटम्स खरीदना इन्वेस्टमेंट और बिजनेस भी है। कीमत के हिसाब से इंडिया के टॉप 25 आर्ट आइटम्स इन्हीं कलाकारों के हैं। कला की दुनिया में भी इंटरनेट का जमाना है इसलिये ही तो सूजा और सबावाला की आर्ट को करोड़ों की कीमत आनलाइन सेल से मिली है। इसी का रिजल्ट है कि एक आनलाइन सेल में चार करोड़ 20 लाख के आफर तो सिर्फ ब्लैकबेरी और आईफोन्स के जरिए मिले। रिसेशन के झटके से उबरने के बाद आर्ट वर्ल्ड में रौनक लौट चुकी है। गैलरीज फिर आर्ट वर्क से सज रही हैं। नहीं तो, मुंबई की फेमस जहांगीर आर्ट गैलरी में भी भीड़ छंट गई थी। चार साल के लंबे इंतजार के बाद एग्जीबिशन का मौका मिलने के बाद भी तमाम कलाकार वहां नहीं पहुंचे थे। जो पहुंचे, वो खाली हाथ लौट आए। यह समय उनके डंप हुए आर्ट वर्क के बिकने का है। अक्टूबर से मार्च तक का समय तो वैसे भी आर्टिस्ट्स के लिए बेहद व्यस्तता का होता है। ऐसे में फिर कहीं से खबर आ जाए कि किसी आर्टिस्ट का काम करोड़ों में बिका है तो चौंकिएगा नहीं, इतनी महंगी बिक्री के एक्जाम्पल्स पहले से हैं।Uttamahttp://www.blogger.com/profile/02850421830553640513noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-3096133054268368082.post-64611752667426180492010-09-28T21:33:00.006+05:302010-10-13T14:05:06.732+05:30आइये बनाएं मेरा भारत महान<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgaAzWZfQYT9FVZ7WFch5DIMvkp6TUk_dUTMnHCoBO6VR2rub_9QR04FXU5aPCn-qU_Kv8MoOzlSri-UxEUjPi6MON-0FjGcD7qecB43vFsBYcFN5Aw2WbPeBRU8-B1XreUNZNhVsbcuw/s1600/ayodhya.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 200px; height: 176px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgaAzWZfQYT9FVZ7WFch5DIMvkp6TUk_dUTMnHCoBO6VR2rub_9QR04FXU5aPCn-qU_Kv8MoOzlSri-UxEUjPi6MON-0FjGcD7qecB43vFsBYcFN5Aw2WbPeBRU8-B1XreUNZNhVsbcuw/s200/ayodhya.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5522179349329547826" /></a>एक बार फिर चुनौती सामने खड़ी है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले से श्रीराम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद का विवाद डरा रहा है। सत्ता हो या आम जन, हर जगह खौफ है कि कहीं सांप्रदायिक सदभाव छिन्न-भिन्न न हो जाए। बाबरी मस्जिद को ढहे दो दशक से ज्यादा समय हुआ। विभिन्न धर्म और जातियों के संगम वाले इस देश की पावन गंगा-यमुना नदियों में न जाने कितना पानी बह गया। जो उस समय बच्चे थे, वो बड़े हो गए, जवान थे, वो बूढ़े और कट्टरता की मिसाल माने जाने वाले कितने बूढ़े जमाने से विदा हो गए। उस समय जो दंगे हुए, उससे तमाम लोगों को सबक मिला। दोनों धर्मों के ज्यादातर लोगों ने मान लिया कि दंगा हुआ तो शिकार हम बनेंगे और रोटियां सियासत के खिलाड़ियों की सिकेंगी। भीषण दंगों ने जो सबक दिया जिसका नतीजा हुआ कि आगरा, बनारस और अलीगढ़ जैसे घोर सांप्रदायिक करार शहर शांत हो गए। कहीं दंगे हुए तो भी छिटपुट। मजहबों की जंग शांत करने के लिए हर जगह दोनों तरफ के लोग साथ आ गए। बनारस का मदनपुरा, अलीगढ़ की सिविल लाइंस या फिर आगरे का मंटोला, सभी ने सबक लिया। पिछले दिनों लखनऊ गई तो हाईकोर्ट के फैसले के मद्देनजर ऐशबाग जाने वाला एक रास्ता रोक रखा था पुलिस ने। वहां दंगा नहीं होता, कभी कटुता होती है तो बात न बिगड़ जाए इसलिये पुलिस की सतर्कता थी यह। और तो और... खबरें हैं कि फैजाबाद और यहां तक कि अयोध्या में भी दोनों वर्गों के लोग शांति चाहते हैं। यह होना भी चाहिये। देश में कॉमनवेल्थ गेम्स शुरू होने वाले हैं, जरा हालात बिगड़े तो क्या होगा, कल्पना करना मुश्किल नहीं। दुर्भाग्य से संवेदनशील शहरों की श्रेणी में शुमार मुरादाबाद, बिजनौर जैसे शहर बाढ़ की तबाही झेल रहे हैं। आगरा-मथुरा में कालिंदी क्रूर है और आसपास के इलाके उसके पानी से लबालब चल रहे हैं। जहां बाढ़ उतार पर है, वहां भी असर कई दिन तक चलेगा। बाढ़ के बाद बीमारियां पैर पसारेंगी, तब कुछ गलत हुआ तो क्या होगा?<br />हम मिलजुल कर रहते आए हैं। तमाम मिसालें हैं जब संकट की घड़ी में हम हिंदू या मुस्लिम नहीं देखते और मानवता की कहानियां रच देते हैं। बाबर को ही हम क्यों याद करते हैं, जबकि तमाम मुस्लिम शासकों और हिंदू राजाओं ने दूसरे धर्मों का सम्मान करने की मिसालें खड़ी की हैं। हम बनारस में ज्ञानवापी-काशी विश्वनाथ मंदिर और मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि-ईदगाह की तरफ देखते हैं लेकिन उन शहरों को क्यों भूल जाते हैं जहां मंदिर में घंटियां एवं मस्जिद की अजान साथ-साथ सुनाई देती हैं। कहीं तो कहीं तो आपसी तालमेल इतना है कि दोनों धर्मों के लोगों ने समझदारी से पूजा और नमाज के लिए अलग-अलग समय तय कर रखा है। राजस्थान में अजमेर शरीफ, गुजरात में अहमदाबाद की करीबी इमामुद्दीन साहब की दरगाह और मुंबई में हाजी अली की दरगाह पर जितने मुस्लिम आते हैं, हिंदुओं की संख्या भी उससे कम नहीं होती होगी। केरल में सबरीमाला तीर्थ जाने वाले श्रद्धालुओं में बड़ी तादात वावार मस्जिद के सामने शीश झुकाती है। मान्यता है कि मस्जिद गए बिना अयप्पा मंदिर की यात्रा का पुण्य अधूरा है। अशांत कश्मीर में हिंदुओं की हालत चाहें कितनी ही खराब हो लेकिन वहीं पुलवामा जिले के एक गांव में एक मंदिर ऐसा है जहां हिंदुओं का हवन चलता है और दूसरे हिस्से में मुसलमान भाई नमाज अदा करते हैं। घाटी से पलायन कर चुके कश्मीरी पंडितों में तमाम ऐसे हैं जो हजरत सैय्यद अकबरूद्दीन के सालाना उर्स में हाजिरी लगाने पहुंचते हैं। फिर हम क्यों भयभीत हैं। मनोविज्ञान के एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि दंगा करने वाले लोगों में बड़ी संख्या उन लोगों की भी होती है जो भयग्रस्त या हीनभावना के शिकार होते हैं। यह लोग सिर्फ इसलिये उग्र हो जाते हैं कि कहीं दूसरा पक्ष उन्हें लील न ले। यह लोग यदि चेत जाएं और प्रशासन उनमें छाया भय दूर कर दे तो चंद सिरफिरों को हम अपनी शांति को आग लगाने की इजाजत देने से बचेंगे। हम हिंदू-मुस्लिम बाद में हैं, भारतीय पहले हैं। जरूरत है कि फैसले को आसानी से स्वीकार करें। कितनी मुश्किल से गढ़ी है हमने देश की यह साझा संस्कृति इसे बचाने की जिम्मेदारी भी हमारी है। हम जानते हैं कि कोई भी चीज बनती मुश्किल से है पर नष्ट आसानी से हो जाती है। मौका है अपने देश को महान बनाने का, फिर कहेंगे मेरा भारत महान। इसी क्रम में इकबाल का शेर अर्ज़ है-<br />वतन की फिक्र कर नादां मुसीबत आने वाली है, तेरी बरबादियों के मश्वरे हैं आसमानों में।<br />ना समझोगे तो मिटजाओगे ऐ हिंदुस्तां वालों, तुम्हारी दास्तां तक न होगी दास्तानों में।।Uttamahttp://www.blogger.com/profile/02850421830553640513noreply@blogger.com17tag:blogger.com,1999:blog-3096133054268368082.post-69808978314298831342010-09-27T07:57:00.009+05:302010-09-27T08:16:36.722+05:30रंगों ने उकेरे सार्थक संदेश<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjVaSDD-SdXOmwwQHV6GBfUD6vON05QcbMB8CTx-3tqKbmq4i4qq_-voUOmUiunD6gQ4Ndb-eCpuvL4M5mYlC4kC6nqo3eJ0nXmsort6Jm8ONNkYk4QZFUuLjf1TWrQ2yVGIWYDn2bwzQ/s1600/art+dainik+jagran.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 200px; height: 132px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjVaSDD-SdXOmwwQHV6GBfUD6vON05QcbMB8CTx-3tqKbmq4i4qq_-voUOmUiunD6gQ4Ndb-eCpuvL4M5mYlC4kC6nqo3eJ0nXmsort6Jm8ONNkYk4QZFUuLjf1TWrQ2yVGIWYDn2bwzQ/s200/art+dainik+jagran.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5521416942833658434" /></a> उन्हें अपनी सृजन क्षमता का प्रदर्शन करने के लिए बेहद स्वाभाविक माहौल मिला था, जहां उनके चित्रों ने हर उम्र के लोगों को कुछ सोचने और करने के लिए प्रेरित किया। 26 सितम्बर को दैनिक जागरण कार्यालय में दिन चढ़ने के साथ ही नवोदितों का आना शुरू हो गया था, जहां उनका जोश और उत्साह देखते ही बनता था। अपनी कला के माध्यम से कैनवास पर प्रदूषण मुक्त काशी का निर्माण करने आए नवोदित प्रतिभाओं में गजब का उत्साह था। नौनिहालों का यह नजारा किसी को भी प्रभावित कर सकता था। किसी का मन मचल रहा था तो कोई भावनाओं में बह रहा था। असल में यह दिन सृजन की दुनिया में अपना मुकाम तलाश रहे कला के नन्हे चितेरों के समागम सरीखा रहा। प्रदूषण विषय पर केंद्रित चित्रकला प्रतियोगिता में नौनिहालों ने रेखांकन और रंग दोनों का आनंद लिया। चित्रों में प्रदूषण के कारण प्रभावित हो रहे जीवन के विविध रंग देखने को मिले। जीवन के विविध प्रसंगों पर बने चित्र नयनाभिराम रहे। तीन वर्गो में आयोजित प्रतियोगिता में विभिन्न आयु के प्रतिभागियों ने पेस्टल और एक्रीलिक रंगों से जहां प्रकृति के सुरम्य वातावरण के साथ-साथ काशी के जन-जीवन को चित्रित किया, वहीं बढ़ते पर्यावरण प्रदूषण के कारण लोगों के जीवन की पीड़ा और वेदनाएं प्रदर्शित की। उनके काम की कोई सटीक उपमा दी जाय तो वह होगी पारदर्शिता। प्रतिभागियों ने चित्रों में अपनी कला अभिव्यक्ति को सहज और बोधगम्य बनाया। उनके चित्रों को देखकर लगा कि वे काव्यात्मक कला में माहिर हैं। नवोदित चित्रकारों ने गंगा घाटों की अनुपम छटा, गांवों के लैंडस्कैप, शहरों के स्कैप, खंडहरों के चित्रों को बोर्डरूम व डिजाइनर घरों तक ले गए और फिर प्रदूषण के कारण उनके विकृत स्वरूप को भी उजागर किया। उनके लिए कला जीवन का दर्पण लगी, जो उनकी बौद्धिक क्षमता का प्रमाण दे रही थी। पेंटिंग्स में आकृतियां स्पष्ट उभार के साथ बढ़ते प्रदूषण की पूरी कहानी खुद कहती दिखीं, जो बेशक आत्मसंतुष्टि प्रदान करने वाली रही। नन्हे चित्रकारों ने शून्य में मौजूद सरलता को रंगों के सहारे साकार या निराकार रूप दिया। चित्रों में प्रदूषण के कारण शहर का नितांत बदसूरत चेहरा दिखा तो बेहद खूबसूरत चेहरा भी पेश किया। कुछ कृतियों में भारतीय संस्कृति की जीवन-रेखा मां गंगा की वेदना-पीड़ा बखूबी परिलक्षित हुई। चित्र खुद-ब-खुद समाज की पीड़ा भी अलग-अलग अंदाज में बयां कर रहे थे। उनके चित्र कुछ उसी तरह का आभास दे रहे थे, जैसे प्राकृतिक आपदा से उजड़ा शहर। शहर में बढ़ रहे प्रदूषण को प्रतिभागियों ने अलग-अलग आकृतियों के माध्यम से दर्शाने का प्रयास किया। चित्र स्वच्छ काशी-सुंदर काशी के संकल्प को साकार करने के लिए लोगों को प्रेरित कर रहे थे। प्रतिभागियों ने सूखे न नदियां सूखे न ताल-तलैया या फिर स्मोकिंग किल्स क्विट स्मोकिंग, पॉल्युशन ऑफ द अर्थ, मोर क्लीनर एण्ड ग्रीनर इन्वायरमेंट जैसे सार्थक संदेश को कैनवास पर बिखरे रंगों के माध्यम से लोगों तक पहुंचाया। चित्रों में पर्यावरण संरक्षण के प्रति गंभीरता दिखी। ऐसा लगा जैसे नवोदित कलाकार नए दृश्यों और विचारों के साथ खेलना तो पसंद करते हैं लेकिन आजकल वे औद्योगिक प्रगति को लेकर कुछ ज्यादा ही उलझ़े हुए हैं। कुछ चित्रों में नए कारखानों, आवासीय कॉलोनियों और सड़कों के निर्माण में प्रदूषण, हिंसा और काव्यात्मक दृश्यों का अद्भुत मिश्रण दिखा। चित्र उम्दा रहे, जहां से सौन्दर्यपरक प्रतिध्वनियां प्रस्फुटित हो रही थीं। प्रतिभागी अपना उत्साह छिपा नहीं पा रहे थे। प्रतियोगिता के विभिन्न वर्गो के विजयी प्रतिभागियों को सम्मानित करते हुए दैनिक जागरण के निदेशक व स्थानीय संपादक वीरेंद्र कुमार ने कला के नवोदित चितेरों का उत्साहवर्द्धन किया। चित्रों का अवलोकन कर नन्हे व युवा कलाकारों की सृजन क्षमता को खूब सराहा। नए व अभिनव प्रयोग को हर स्तर पर प्रोत्साहित करने पर भी बल दिया। निर्णायक मंडल में बीएचयू के दृश्य कला संकाय की प्रो.भानु अग्रवाल, <span style="font-weight:bold;">डॉ.उत्तमा दीक्षित</span> तथा दिल्ली पब्लिक स्कूल वाराणसी की आर्ट फैकल्टी की प्रमुख रिंकू चक्रवर्ती रहीं। डॉ. उत्तमा के शब्दों में- प्रतियोगिता में नवोदित चित्रकारों के लिए कला कोई फास्ट फूड की तरह नहीं बल्कि जीवन की तरह ही गंभीर और सघन चिंतन-मनन का विषय सरीखी दिखी। पुरस्कार वितरण समारोह में दैनिक जागरण के मैनेजर अंकुर चड्ढ़ा,एलआईसी के सेल्स मैनेजर पीके श्रीवास्तव भी मौजूद थे।<span style="font-weight:bold;">(जैसा दैनिक जागरण, वाराणसी ने प्रकाशित किया</span>)<br /><br />यहां देखें प्रतियोगिता का कवरेजः-<br /><a href="http://in.jagran.yahoo.com/epaper/index.php?location=40&edition=2010-09-27&pageno=6">http://in.jagran.yahoo.com/epaper/index.php?location=40&edition=2010-09-27&pageno=6<br /></a>Uttamahttp://www.blogger.com/profile/02850421830553640513noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3096133054268368082.post-20215173627045103902010-09-09T10:16:00.004+05:302010-09-09T10:30:49.453+05:30मोनालिसा! वाह, क्या बात है !<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiWLWISb_H6On2McU659Gdw2kjTauwth5lhYq1Pc9dfC_Pp-ASJx07Yqcpnp46K0mkXyCeozOclFR3piv84v90rvCoNuwoGBNXuF0ZKLSpAK1qEkAOGiK_qTPWKvKigVSNNC8YC_oJaXw/s1600/monalisa.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 128px; height: 200px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiWLWISb_H6On2McU659Gdw2kjTauwth5lhYq1Pc9dfC_Pp-ASJx07Yqcpnp46K0mkXyCeozOclFR3piv84v90rvCoNuwoGBNXuF0ZKLSpAK1qEkAOGiK_qTPWKvKigVSNNC8YC_oJaXw/s200/monalisa.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5514772864397021202" /></a><br />मोनालिसा का नाम किसी इंट्रोडक्शन का मोहताज नहीं. विजुअल आर्ट वर्ल्ड की सबसे फेमस रचना मोनालिसा एक आइकान है. मिस्ट्री से भरी हुई आर्ट की एक हिस्ट्री है, जो खूबसूरती की ओर सभी का ध्यान तो खींच लेती है लेकिन अपनी असली पहचान और टेक्नीक न बताकर रहस्य का अनूठा संसार गढ़ देती है.हर बार रिसर्च का सब्जेक्ट बनती है लेकिन निष्कर्ष निकलने के बजाए फिर अबूझ रह जाती है. मोनालिसा के बारे में बात करने या उसे देखने से एक रोमांच पैदा होता है. खास बात यह है कि यह रोमांच बहुत पुराना है लेकिन हर चर्चा में नया हो जाता है. मोनालिसा सिर्फ एक बार रची गई, पर बड़ा समय बीतने के बाद भी पुरानी नहीं हुई. खूबसूरती का नायाब माडल ही तो यह है कृति तभी तो अपनी तुलना मोनालिसा से किए जाने पर कोई भी गर्ल इठलाए बिना नहीं रह पाती.<br />आयल कलर्स से वुडेन बोर्ड पर बनी पेंटिंग मोनालिसा फ्रांस के लूव्र म्यूजियम में सुरक्षित है. बुलेटप्रूफ केस में सुरक्षित इसी मोनालिसा को देखने हर साल 60 लाख से ज्यादा टूरिस्ट फ्रांस आते हैं. तस्वीर को बचाए रखने के लिए एक ख़ास किस्म के शीशे के पीछे रखा गया है जो न तो चमकता है और न टूटता है. मोनालिसा यूं ही खास नहीं बन गईं. बहुत कम लोग जानते होंगे कि चित्रकला में भी टेक्नीक्स का सावधानी से प्रयोग होता है. कलर्स काम्बिनेशन से लेकर लाइट इफेक्ट्स तक का यूज उसकी क्वालिटी तय करता है. इटैलियन आर्टिस्ट लिओनार्दो द विंची ने अपनी इस कृति में माडल की फेस शेप, लाइट इफेक्ट और बैकग्राउंड में लैंडस्केप के तालमेल से मिस्ट्री पैदा की है. उन्होंने वस्तुओं के फीके रंगों का इस्तेमाल किया और लाइट की रेज को तोड़कर माडल के चेहरे को उभारा. लाइट इफेक्ट में स्मोकी कलर्स डाले गए हैं. महान चित्रकार ने 40 बेहद बारीक परतों को कलई अपने अंगुलियों से चढ़ाकर चेहरे को आभा प्रदान की जो विभिन्न रंगों का एक्सीलेंट मिक्सचर है और मोनालिसा के फेस के इर्द-गिर्द धुंधला प्रकाश और छाया प्रदान करता है. एक्सपर्टनेस इतनी है कि चेहरे की मुस्कान लुका-छिपी के खेल के समान लगती है. एक पल में यह मोनालिसा के चेहरे पर नजर आती है और दूसरे ही पल सीधे देखने पर गायब हो जाती है. इसी रहस्यमयी मुस्कान के कारण मोनालिसा को संसार में नारी की सबसे सोफिस्टीकेटेड इमेज माना गया है. कहते हैं कि मोनालिसा की इसी फेमस स्माइल लाने के लिए विंची ने दो बेटों की मौत से दुखी ईसाबेल को हंसाने के लिए कामेडी ड्रामा दिखाए। लंबे समय बाद हल्की सी मुस्कान आई जो विंची ने कैनवस पर उकेर दी. कमाल की बात है कि करीब पांच सौ साल पहले यूज हुई यह टेक्नीक इतनी रेयर है कि साइंटिस्ट ग्रुप ने एक्स-रेज की मदद से इन्हें तलाश किया. मिस्ट्री पैदा करना उनका मकसद भी था तभी तो माडल का नाम छिपाए रखा. <br />ढेरों प्रयास हुए पर पता नहीं चला कि यह असल में किस महिला का चित्र है? माडल कौन है? फ्रांसीसी लेडी लिसा घेरार्दिनी या मिलान के ड्यूक की पत्नी ईसाबेला? कुछ लोग तो यह भी मानते हैं कि विंची को यदि महिला रूप में देखा जाए तो मोनालिसा जैसे दिखेंगे. यह लोग मानते हैं कि विंची ने इमैजिनेशन और टेक्नीक के प्रयोग से अपना सेल्फ पोट्रेट रचा है. आर्ट वर्ल्ड में आने के बाद किसी भी स्टूडेंट की पहली मुलाकात मोनालिसा से होती है. आर्ट पर उसकी नालेज का पता लगाने के बाद कभी टीचर क्वेश्चन पूछ लेता है तो कभी क्यूरोसिटी की वजह से वह खुद जानकारी चाहता है. आर्ट की हर लाइब्रेरी में ढेरों किताबें विंची की इसी कृति के बारे में बताने के लिए मौजूद होती हैं. मोनालिसा इतनी बड़ी आइकान है कि ढेरों लड़कियों के नाम उस पर रखे गए. यही नहीं, इंडिया में मोना और फारेन कंट्रीज में लिसा नाम इसी प्रसिद्धि के हिस्से माने जाते हैं. मोनालिसा नाम रखने के लिए रिलिजन या कास्ट या कंट्री, कोई मायने नहीं रखता. यह नाम बियोंड बाउंड्रीज है. मुझे याद है कि दिल्ली आर्ट कालेज में एक साल मोनालिसा नाम की स्टूडेंट ने मुंबई में एक आर्ट कम्टीशन जीता था, वह भी मोनालिसा की कापी करके. तीन साल में बनी विंची की मोनालिसा की हजारों बार कापी की गई. यही नहीं, कई कापी वर्क तो असली बताकर कई म्यूजियम्स में एक्जीबिट हैं. मार्केट में डिमांड है इसलिये ही तो देश-विदेश में तमाम कलाकार इसकी कापी करके लाखों कमा लेते हैं. स्टूडेंट बार-बार कापी करते हैं ताकि उनकी आर्ट में परफेक्शन आए. टीचर्स के लिए यह अपने स्टूडेंट्स को टेक्नीक पढ़ाने का जरिया है. दा विंची की बायोग्राफी लिखने वाले जियर्जिओ वसारी का कहना था, with a nebulous atmosphere of mystery, has become almost more famous than the artist himself. जितने लोग उसके रचनाकार विंची को जानते हैं, उससे ज्यादा मोनालिसा के मुरीद हैं. विंची सिर्फ फेमस हुए पर मोनालिसा अमर है. पांच सौ साल के लंबे समय में यह नाम प्रतिदिन ज्यादा चर्चित होता रहा है और होता रहेगा भी. आखिरकार मोनालिसा सिर्फ मोनालिसा है.Uttamahttp://www.blogger.com/profile/02850421830553640513noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3096133054268368082.post-78571001886355344952010-08-12T07:29:00.014+05:302010-08-30T21:23:29.175+05:30जुड़ा रंगों का मेलातूलिका का कमाल। रंगों का धमाल। कलाकारों में होड़। प्राकृतिक दृश्यों की भरमार। पेपर पर हरियाली की मार। एक से बढ़कर एक कलाकृति। चंदौली जिले में मुगलसराय स्थित नगर पालिका इंटर कालेज परिसर में रविवार 22 अगस्त को राज्य ललित कला अकादमी उप्र की ओर से आयोजित चित्रकला प्रतियोगिता में यह सब देखने को मिला। प्रकृति चित्रण पर आधारित प्रतियोगिता में कुल लगभग डेढ़ सौ कलाकारों ने भाग लिया। दो वर्गों क्रमश: 10 से 17 एवं 18 से 25 वर्ष के प्रतिभागी जुटे तो सर्वश्रेष्ठ कृति बनाने के लिए होड़ सी मच गयी। माध्यम था एक्रेलिक अथवा पोस्टर रंग। प्रतियोगिता की संयोजक बीएचयू स्थित दृश्यकला संकाय के चित्रकला विभाग की असिस्टेंट प्रोफेसर डा. उत्तमा दीक्षित ने कहा कि नक्सल प्रभावित चंदौली जिले में नौगढ़ जैसे कई मनोरम प्राकृतिक स्थल हैं। यहां की कलाओं को प्रोत्साहन मिले तो नक्सलवाद जैसी समस्याओं का हल हो सकता है। निर्णायक मंडल में बीएचयू में दृश्य कला संकाय के पूर्व अध्यक्ष प्रो. आरएन मिश्र व एसोसिएट प्रोफेसर डीपी मोहन्ती शामिल थे। 29 अगस्त को सर्वश्रेष्ठ कृतियों की घोषणा की गई। दोनों वर्गों में प्रथम, द्वितीय और तृतीय पुरस्कार प्रदान किए गए। दोनों वर्गों में चुनी गईं 10 सर्वश्रेष्ठ कृतियों की लखनऊ में प्रदर्शनी आयोजित होगी। सभी प्रतिभागियों के चित्रों की प्रदर्शनी का आयोजन और पुरस्कार वितरण समारोह 29 अगस्त को इसी इंटर कॉलेज में सम्पन्न हुआ।<br /><br />यहां देखें प्रतियोगिता का कवरेजः-<br /><a href="http://in.jagran.yahoo.com/epaper/index.php?location=40&edition=2010-08-23&pageno=9#">http://in.jagran.yahoo.com/epaper/index.php?location=40&edition=2010-08-23&pageno=9#</a><br /><br /><a href="http://tewaronline.com/?p=465">http://tewaronline.com/?p=465</a><br /><a href="http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttarpradesh/4_1_6641872.html"><br />http://in.jagran.yahoo.com/news/local/uttarpradesh/4_1_6641872.html</a><br /><a href="http://fineartakademiup.nic.in/home.htm"><br />http://fineartakademiup.nic.in/home.htm</a>Uttamahttp://www.blogger.com/profile/02850421830553640513noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3096133054268368082.post-71511055718502984142010-08-05T17:15:00.003+05:302010-08-05T17:20:02.465+05:30सबको भाये फोक का लोक<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhuiT9VIqRh9oRpI5SHVKtpwEllQgRqYl5AoGHLu1GmtJo3eHGBrkIc7ITRc6Leg5m5-ckndgx7ZzwJ5eS2t0cEzcGi1QEG4suh5y6qajP3IFOnrLTz6fhwhJnOWR0e1GNy3D7J71kCqw/s1600/4inl-p16b.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 200px; height: 154px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhuiT9VIqRh9oRpI5SHVKtpwEllQgRqYl5AoGHLu1GmtJo3eHGBrkIc7ITRc6Leg5m5-ckndgx7ZzwJ5eS2t0cEzcGi1QEG4suh5y6qajP3IFOnrLTz6fhwhJnOWR0e1GNy3D7J71kCqw/s200/4inl-p16b.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5501891748613773426" /></a><br />मॉडर्न ड्रेसेज पर ट्रेडीशनल टाइप आर्नामेंट्स, वाह क्या कहने ! नए के साथ पुराने का ये तालमेल पर्सनेलिटी में अलग और अच्छा सा लुक देता है. कभी-कभी तो इनके सामने डायमंड और गोल्ड की ज्वेलरी भी मात खा जाती है. खास बात यह है कि जब चाहो, बदल लो. यंग जेनरेशन की तो खास पसंद हैं. आर्टिस्ट्स और आर्ट्स के स्टूडेंट्स के मैदान में आ जाने से यह हैंडीक्राफ्ट आइटम्स और भी मन मोह लेने लगे हैं. नई-नई तरह की अलग-अलग रंगों की ड्रेसेज से मैच करने वाले वुड, पेपर, स्टोन के साथ ही आयरन वायर्स, सिल्वर, कॉपर और ब्रास के ईयरिंग्स, नेकलेसेज, ब्रेसलेट्स, पैनडेंट्स जैसे कई तरह के यह हैंडीक्राफ्ट आर्नामेंट्स पर्सनेलिटी में चार चांद लगा रहे हैं.<br />ट्रेडीशनल आर्ट है हैंडीक्राफ्ट. पहले स्मॉल स्केल पर बना करती थी लेकिन अब फलने-फूलने के बाद इंडस्ट्री का रूप ले चुकी है. तमाम कलाकार अपनी कल्पनाओं को इसके जरिए आकार दे रहे हैं. स्टूडेंट्स के लिए भी इनकम का सोर्स है. मैं ऐसे कई स्टूडेंट्स को जानती हूं जिन्होंने प्लास्टिक आर्ट, स्कल्पचर और पॉटरी में ट्रेंड होने के बाद हैंडीक्राफ्ट इंडस्ट्री का रुख किया. इसका असर हुआ, नई जनरेशन की क्रिएटीविटी और इमैजिनेशन ने हैंडीक्राफ्ट को भी बदल दिया. ट्रेडीशनल स्टाइल में ऐसे-ऐसे आर्नामेंट्स आ गए कि जैसे क्रांति ही हो गई. बाजारों में इतनी तरह के आइटम्स मिलने लगे हैं कि अपनी पसंद तय करने में ही घंटों लग जाएं. जो चाहिए, वो मिलेगा यहां. इमैजिनेशन का ही असर है कि कलाकार पुरानी और बेकार चीजों को डेकोरेटिव बना रहे हैं. कोई सोच सकता है कि वेस्ट पेपर की रिसाइकिलिंग करके भी सुंदर-सलोने आर्नामेंट्स बनते हैं? अलग-अलग रंगों के इस्तेमाल से बने यह आर्नामेंट्स इको फ्रेंडली तो हैं ही, एंटी एलर्जिक भी होते हैं. पानी में भीग जाएं तो कुछ देर रख दीजिए, सूखकर पहले जैसे हो जाएंगे. टेरोकोटा और हाथी दांत भी इस कला में योगदान दे रही है. वुड की वैराइटीज कमाल के आइटम्स बनाती हैं, जिससे पर्यावरण को भी ज्यादा खतरा नहीं होता. यूज की जाने वाली वुड ज्यादातर उन पेड़ों की होती है जो जल्दी और आसानी से उग आते हैं. इस परपज के लिए उन्हें अलग से उगा और यूज कर लिया जाता है. स्टोन्स के आइटम्स में कलर और साइज काम्बिनेशन न हो तो भी आकर्षक दिखते हैं. <br />सिल्वर वायर्स से बनी ज्वेलरी आंखें चौंधिया देती है. सिल्वर सिजरी नाम की यह आर्ट लाइट ज्वेलरी मार्केट में गोल्ड को पीछे छोड़ चुकी है. प्लास्टिक को मोल्ड करके भी यह आइटम बनते हैं, इससे फेंके जाने से एनवायरमेंट को नुकसान पहुंचाने वाली प्लास्टिक एक बार और काम में आ जाती है. दरअसल, सूरजकुंड हैंडीक्राफ्ट फेयर ने इस कला को नई मंजिल तक पहुंचाया है. नगरीय हाट जैसे लगभग हर शहर में लगने वाले हैंडीक्राफ्ट फेयर से यह और आसानी से रीच में आ गई. इसके साथ ही एक्सपोर्ट का करीब 17000 करोड़ का बाजार है, इसलिये इम्प्लायमेंट के मौके भी खूब हैं. तभी तो स्टूडेंट्स की भीड़ इस तरफ आने लगी है. स्कूल लेवल से ही क्राफ्ट की ट्रेनिंग से ग्रेजुएशन से नीचे के स्टूडेंट भी इस भीड़ में शामिल हैं. चीन से भी यह आइटम आ रहे हैं लेकिन इक्कीस हम हैं. आर्ट वर्ल्ड में हवा चलने के कारण हम वैराइटीज बना रहे हैं. इसका जबर्दस्त क्रेज है. देहरादून में एक दुकान पर अपने लिए खरीदते वक्त मैंने पूछा तो पता चला कि वहां रोजाना हजारों रुपये के यह आइटम बिकते हैं. इलाहाबाद के कला-कुंभ में आर्ट की तमाम वैराइटीज थीं पर सबसे ज्यादा भीड़ हैंडीक्राफ्ट स्टाल पर थी. आगरा में शिल्पहाट और लखनऊ हाट में फॉरेन टूरिस्ट भी खूब खरीददारी करते हैं. बनारस में दशाश्वमेध घाट पर हैंडीक्राफ्ट आर्नामेंट्स की हजारों-लाखों डिजाइन मिल सकती हैं. झुमके के लिए फेमस बरेली के बाजार भी इससे अटे पड़े हैं. यह क्रेज ही है कि इसे बनाने के बाद गर्ल्स खुद को रोक नहीं पातीं और पहनकर इठलाती घूमती हैं. झारखंड-बिहार में स्टोन आइटम्स ज्यादा बनते-बिकते हैं. आगरा के फतेहपुर सीकरी में राजस्थानी हैंडीक्राफ्ट का एक नेकलेस देखकर मैं खुद भी मचल सी गई थी. हर ऐसी दुकानों पर तमाम गर्ल्स और लेडीज को मैंने मचलते देखा है. यह एक आर्ट है इसलिये वो परवाह नहीं करतीं कि कौन-क्या सोचेगा? यह तो पुराना ट्रेंड है लेकिन नए लोगों के आने से इसमें नया और एक्साइटिंग लुक जरूर आ गया है.Uttamahttp://www.blogger.com/profile/02850421830553640513noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3096133054268368082.post-65387017788697117392010-07-20T08:09:00.003+05:302010-07-20T08:13:48.374+05:30लोक कलाओं की मुश्किल<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiMaTRc5heGpztSgMeMurxp0f2Nl5pqZbXhW4E8sjVt2mAzvsYxbj4zik-bsMvY63_CkuFL16cNrrtrkRgcYsYwUrtPc-7mg1IxE35qMuLaArPTJBWUdwCTdhl2CRrhvmBOahZ6x1St2w/s1600/kohbar-up-folk+art.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 200px; height: 148px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiMaTRc5heGpztSgMeMurxp0f2Nl5pqZbXhW4E8sjVt2mAzvsYxbj4zik-bsMvY63_CkuFL16cNrrtrkRgcYsYwUrtPc-7mg1IxE35qMuLaArPTJBWUdwCTdhl2CRrhvmBOahZ6x1St2w/s200/kohbar-up-folk+art.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5495813593980456066" /></a><br />घर की दीवारों को खूबसूरत बनाने और कानों के रास्ते मन को आनंदित करने वाली लोक कलाएं मुश्किल में हैं. दिन में रॉकिंग म्यूजिक बेशक अच्छा लगे लेकिन सुबह की शुरुआत मन सुहाने वाले गीतों से नहीं हो पाया करेगी. ताजापन ख़त्म हो जाएगा. घर सजेगा जरूर लेकिन इमैजिन कीजिए, अपने देश की माटी से जुड़ी कलाएं नहीं होंगी तो क्या लुक आंखों को अच्छा लग पाएगा. हैसियत के मुताबिक मिल जाने वालीं लोक कलाओं के बिना हम कैसा फील करेंगे? जानते होंगे कि जो हमारे पास है, वो लोक कला असली नहीं तो कैसी फीलिंग होगी. सचमुच यही सिचुएशन आने वाली है.<br />बॉलीवुड एक्टर आमिर खान की 'पीपली लाइव' के लोकगीत 'महंगाई डायन खात जात है' से चर्चा में आए देश की पहचान से जुड़े लोक गीतों पर खतरा मंडरा रहा है. लोक कलाओं का ही एक रूप है लोक गीत. ये गीत तो फिल्मों में पहले भी चोरी हुए हैं. बॉलीवुड में एक समय ऐसा भी था जब अधिकांश फिल्मों में एक न एक लोक गीत को जरूर शामिल किया जाता था. इन लोक गीतों में शास्त्रीय रागाधार, स्वर, ताल और लय मूलक सौन्दर्य था इसलिए फिल्मों में जगह मिली. लोग इन्हें सुनना पसंद करते हैं. 'पान खाय सैंया हमारो' और 'चलत मुसाफिर मोह लियो रे' हो या पिछले दिनों आई 'दिल्ली-6' का 'ससुराल गेंदा फूल', लोक गीत ही तो है. महज 1100 रुपये मिलने से नाराज रायसेन (एमपी) के टीचर गया प्रसाद प्रजापति अगर मुंबई जाकर आमिर से छह लाख का पेमेंट ले आते हैं तो इसलिये कि कंट्रोवर्सी आमिर का नाम जुड़ा होने से शुरू हुई वर्ना कोई नहीं पूछता उन्हें. लोक कलाकारों की बेहद खराब हालत है. अपना मूल काम वो छोड़ नहीं रहे बल्कि लोगों की उपेक्षा उन्हें छोड़ने को मजबूर कर रही है. बनारस के पास एक लोक कलाकार महज कुछ प्रतिशत कमीशन पाने के लिए भगवान बुद्ध की तीन करोड़ की प्राचीन मूर्ति चुराने वालों का साथ देने के लिए तैयार हो जाता है कि कुछ दिन ही सही पेट तो भरेगा. ये कलाकार बिरहा गाता है.<br />एक आदमी उसके संपर्क में आता है. कुछ गांवों में बिरहा गाकर पैसे कमाने में मदद करता है और फिर चोरी में शामिल कर लेता है. कलाकार नहीं जानता कि मूर्ति चोरी की है. हो सकता है कि वह बचने के लिए झूठ बोल रहा हो लेकिन ऐसे हालात आए क्यों? बेशक, गरीबी ने इसके लिए मजबूर किया. यूजीसी के अपने प्रोजेक्ट के सिलसिले में गई तो मैंने देखा कि अवध हो या ब्रज या फिर भोजपुरी बेल्ट, सभी जगह लोक कलाकार सिसक रहे हैं. लखनऊ से सीतापुर तक जमकर बनने वाली आर्टिस्टक बकेट्स देशभर में जानी-पहचानी जाती थीं पर इनके कलाकार ढूंढने पर मिलते हैं. कुछ तो कला से पलायन करके अन्य काम कर रहे हैं. इसी तरह ब्रज रीजन में कभी फेमस रहीं वुड आर्ट नजर नहीं आती. राजस्थान बार्डर से जुड़े एरिया में यह पहले खूब बनती थीं. यह कलाकार अब लकड़ी की मालाएं बना रहे हैं. पता चला कि अवध, ब्रज या रुहेलखंड में तमाम जगह अब फेस्टिवल्स या खुशी के अन्य मौके पर दीवारों पर कोहबर आदि चित्रण नहीं होता. लोग खुद बनाकर फॉर्मेलिटी पूरी कर लेते हैं, जो पहले किसी आर्टिस्ट को बुलाते थे. बरेली की एक कॉलोनी में एक गैलरी है, जहां लोक कलाएं बिकती हैं लेकिन इन्हें लोक कलाकार नहीं बनाते बल्कि ठेके पर बनवा ली जाती हैं.<br />दिल्ली-मुंबई में तो यह काम बड़े पैमाने पर होता है. कुछ लोग तो महज इसी की फैक्टरीज़ चलाकर करोड़ों कमा रहे हैं जहां जरूरतमंद आर्टिस्ट सैलरी पर काम करते हैं. यह सच है कि इन्हें जॉब मिला है लेकिन भीतर का कलाकार मारकर. कलाकार अपने मूड से कला रचता है पर यहां आर्डर पर काम करना होता है. लखनऊ, आगरा, बनारस, इलाहाबाद, पटना हो या फिर देहरादून, सभी जगह टूरिस्ट्स की भीड़ लगती है लेकिन कलाओं की मार्केटिंग असली कलाकारों के हाथ में नहीं. टूरिस्ट जो खरीद रहा है, वो या तो नकली है या किसी कलाकार ने अपनी आत्मा मारकर किसी फैक्टरी में बनाया है. एक अन्य प्रोजेक्ट के निष्कर्ष बताते हैं कि लोक कलाओं के लिए सबसे ज्यादा फेमस राजस्थान में भी यही हाल है. वहां छोटी-बड़ी और बेहद डेकोरेटिव आइटम्स आम तौर पर यह कलाकार नहीं, फैक्टरीज़ बना रही हैं. पहले यही लोग बनाते थे. हालांकि प्रॉब्लम सॉल्व करने की कुछ पहल हुई है. यूपी के अलग-अलग शहरों के कुछ कलाकार लोक कलाओं की सीधी मार्केटिंग करने की कोशिश कर रहे हैं. दुआ है कि इसका नतीजा निकले, और कलाकार भी प्रयास करें और सफल हों वरना देश की एक और असली पहचान लुप्त हो जाएगी.Uttamahttp://www.blogger.com/profile/02850421830553640513noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3096133054268368082.post-19964105822946508222010-07-08T08:36:00.020+05:302010-07-08T09:10:21.498+05:30कुत्ते का कत्ल और सजाः शर्म और साधुवाद<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh58o4JDXVwwpDMCitJ2MKz7na-6Agcf-Es5jDk80VYpL46iH3y2I_mcsEFbQGqAB37W-gxSePPUNtSFXgR1YVPtfA-INFlU226knEvZn7iW-TrR-7Ku-C769ybrhbFQMthS1sDy5eWJg/s1600/Dog.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 136px; height: 200px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh58o4JDXVwwpDMCitJ2MKz7na-6Agcf-Es5jDk80VYpL46iH3y2I_mcsEFbQGqAB37W-gxSePPUNtSFXgR1YVPtfA-INFlU226knEvZn7iW-TrR-7Ku-C769ybrhbFQMthS1sDy5eWJg/s200/Dog.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5491375084453809586" /></a><br />खबर यह है कि बनारस हिंदू विश्वविद्यालय परिसर में एक कुत्ते को पीटकर मार डालने वाले छह सुरक्षाकर्मियों को बर्खास्त कर दिया गया है। चार दिन पहले की बात है, सुबह से दुखी हो गई। अखबार की एक खबर ने परेशान कर दिया कि विश्वविद्यालय की तुलसीदास कॉलोनी में छह सुरक्षाकर्मियों ने एक निरीह कुत्ते को पीट-पीटकर मार डाला, महज मजा लेने के लिए। यह लोग उस निरीह प्राणी को तब-तब घेरकर मारते रहे जब तक वह चीखता रहा। वह जितना चीखता, इनका आनंद उतना ही बढ़ जाता। विश्वविद्यालय की सुरक्षा के लिए मुस्तैद कर्मचारियों का इस तरह का आचरण भीतर तक दुखी कर गया। आंखों के सामने वह नजारे घूमने लगे जब यह सुरक्षा बल आदरपूर्वक व्यवहार करता है। इन्हीं के दम पर यूनिवर्सिटी परिसर में सब-कुछ हमेशा पटरी पर रहता है। महामना मदन मोहन मालवीय जी के इस पवित्र स्थल पर कहां से पैशाचिक आचरण के यह छह लोग आ गए? कहां जाता है कि इस परिसर में काम करने वाला (मालवीय जी की कृपा से अन्न पाने वाला) यदि किसी बुरे काम की मन में भी लाता है तो उसे बुरी सजा मिलती है। यहीं पढ़ीं हूं इसलिये लगाव ज्यादा है और मालवीय जी पर मेरी श्रद्धा भी। मन में भरोसा बैठाया कि इन छह लोगों को जरूर सजा मिलेगी। विश्वविद्यालय प्रशासन की सजगता से परिचय भी ढांढस बंधा रहा था। मन ने यह भी मान लिया कि बुरे काम का बुरा नतीजा, इन्हें ईश्वर भी दंड देंगे। सच बताऊं तो किसी तरह अपने आंसू रोक पाई थी मैं।<br />कुत्तों से मुझे बहुत प्यार है। छोटी थी तब कुछ लोगों ने एक पिल्ले को रात नाली में धकेल दिया। उसके चिल्लाने और उनके हंसने की आवाज साथ-साथ आती रही। मम्मी की डांट न पड़े, इसलिये मैं बोली नहीं पर रात में सो नहीं पाई। किसी तरह मौका पाकर दरवाजे की कुंडी खोली और निकल पड़ी। आवाज की दिशा में चलकर पिल्ले को ढूंढ निकाला। बेचारा भीगा हुआ था, समय बीतते-बीतते जैसे मौत के सामने हार मान चुका था और आवाज धीमी हो गई थी। मैंने नाली ने निकाला और घर ले आई। उसे नहलाया, रातभर अपने पास रखा और सुबह उसकी मां के पास छोड़ आई। रोज उसे देखती, एक अलग सा प्रेम उससे पनप गया था। जब तक वहां रही, उसका ध्यान रखती रही। इस समय भी मैंने एक कुत्ता पाल रखा है। बेहद खतरनाक है, जरा सा गुस्सा हो जाए तो हमला करने से नहीं चूकता। मुझे भी काट लेता है। बाहरी आदमी को बख्शता नहीं पर यह उसकी आदत और धर्म, मेरा धर्म और आदत है कि मैं उसका ध्यान रखूं इसलिये रखती हूं। बहुत प्यारा लगता है मुझे।<br />आज अखबार पढ़ा तो लगा कि इसी अंक का मुझे इंतजार था। विश्वविद्यालय के प्रानुशासक मंडल ने त्वरित कार्रवाई के तहत जांच की और दोषी पाए जाने पर इन छह सुरक्षाकर्मियों को बर्खास्त कर दिया। आस्था बढ़ गई है मेरी ईश्वर में। सच में ईश्वर बुरे काम का दंड देता है और मालवीय जी अपने परिसर में बुरा काम करने वाले को बख्शते नहीं। सराहना की बात है कि एक निरीह प्राणी पर कहर बरपाने वालों को तत्काल और इतनी कड़ी सजा मिली। देश में संभवतया पहली बार पशुओं के प्रति मानवता का इतना बड़ा उदाहरण सामने आया है। बीएचयू के सुरक्षाकर्मियों के लिए आयोजित प्रशिक्षण कार्यक्रम में कुलपति प्रो. डीपी सिंह ने कहा था कि यहां के सुरक्षाकर्मियों का व्यवहार पुलिस से अलग होना चाहिए। पुलिस को समाजविरोधी तत्वों से निबटना पड़ता है जबकि यहां जवानों का सरोकार सुसंस्कृत विद्वतजनों से है। कार्यक्रम में मानवीय मूल्य और सद्व्यवहार का जज्बा भरा गया। साथ ही व्यक्तित्व विकास एवं तनाव मुक्ति के रास्ते भी सुझाए गए थे। सुरक्षा तंत्र पर इतनी मेहनत करने वाले प्रशासन ने इन दोषियों को बता दिया कि गलत करोगे तो सजा पाओगे। सलाम करती हूं इस प्रशासन को।Uttamahttp://www.blogger.com/profile/02850421830553640513noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-3096133054268368082.post-35518196314187932382010-07-07T08:13:00.006+05:302010-08-10T07:49:15.362+05:30इमैजिनेशन और कलायह आर्ट वर्ल्ड है. कभी हकीकत से भरा और कभी कल्पना के रंगों से सजा हुआ. सभी के मन में कोई न कोई तस्वीर जरूर होती है. इमैजिनेशन नहीं होगा तो दुनिया बदरंग लगेगी पर बात कला की हो तो बिना कल्पना कलाकार हो ही नहीं सकता. मतलब कल्पना नहीं तो कलाकार नहीं. कलाकार अपने इमैजिनेशन को रंगों या पत्थरों से आकार देता है. शायद इसीलिए किसी के पास कम तो किसी के पास अधिक कल्पना शक्ति होती है. हर वह व्यक्ति आर्टिस्ट है जिसके पास ज्यादा इमैजिनेशन पावर है. जीवन हो या कला, दोनों में कल्पना का बेहद इम्पॉर्टेंट रोल है.<br />आर्ट की किसी क्लास में जाइये. सीखने वाले बच्चे हों या बड़े, सभी एक अलग दुनिया में खोए हुए मिलेंगे. आर्ट शीट या कैनवस पर कलम या कूंची से स्केच खिंच रहे होंगे पर आंखें शून्य में कुछ सोचने में लीन मिलेंगी. अगर यह नजारा न दिखे तो समझ लीजिए यहां कला का सृजन नहीं, सिर्फ टाइम पास किया जा रहा है. पाब्लो पिकासो कहते थे कि कला रचनी है तो दुनिया छोड़ दीजिए. जितनी देर कला की दुनिया में रहें, उतनी देर आम दुनिया से वास्ता मत रखिए. इटली के एक स्कूल की वह घटना खूब सुनी-सुनाई जाती है जिसमें आर्ट की एक क्लास में चोर तीन घंटे तक स्टूडेंट्स का सामान उनके बैग्स से चुराते रहे लेकिन किसी को पता तक न चला. पता भी तब चला जब क्लास खत्म होने के बाद एक स्टूडेंट ने वाटर बॉटल निकालने के लिए बैग में हाथ डाला. घटना इतनी चर्चित हुई कि स्कूल खूब फेमस हो गया. आर्ट फील्ड में उसका नाम रेस्पेक्ट से लिया जाने लगा. फेमस आर्टिस्ट ए. रामचंद्रन ने मायथोलॉजिकल करेक्टर राजा ययाति की लाइफ को उकेरा. कैनवस पर म्यूरल इफेक्ट देकर उन्होंने फिगर और नेचर का शानदार सामंजस्य प्रदर्शित किया. बहुत महंगे बिकते हैं यह चित्र. उन्हीं के समकालीन रामकुमार ने अपनी इमैजिनेशन पावर की बदौलत बनारस के घाटों और गलियों को नया ही लुक दे डाला. अंजलि इला मेनन ने महिलाओं की दुख और गरीबी को अपने इमैजिनेशन से अलग ही ढंग से उभार दिया. देखकर ही करुणा का भाव आता है. एनीमल्स का इस्तेमाल इन पेंटिंग्स को और जीवंत बना देता है.<br />ललित कला एकेडमी की एक रीजनल एक्जीबिशन में गई तो वहां एक अनजाने से स्टूडेंट आर्टिस्ट रविशंकर की हिडन ईयर देखकर चकित हो गई. येलो कलर में नहाए आसमान और छतों पर एक कपल की परछाई पड़ रही है, दीवार के उस पार कोई सुन रहा है. कल्पना ने रच दिया था कि दीवारों के भी कान होते हैं. एक और स्टूडेंट आर्टिस्ट रामकुमार ने फाइबर ग्लास मीडियम में बनाए स्कल्पचर में आजादी की चाह दिखाई थी, संकेतक बनी हैं मछलियां जो बकेट से कूद रही हैं. एक अन्य कलाकृति में दो लवर्स हैं, जो प्रेम करने के लिए किसी मांद में घुस रहे हैं. एकांत में प्रेम की चाह दिखाई थी उसने. कमाल का इमैजिनेशन है यह. प्रेम की बात होती है तब यह इमैजिनेशन ज्यादा कमाल दिखाता है. लव की सैड एंडिंग स्टोरीज में ब्रोकन हार्ट और हैप्पी एंडिंग में कपल के हाथों को साथ-साथ दिखाना भी तो आर्ट में इमैजिनेशन ही है. फेमस आर्टिस्ट रघु राय ने एक फोटो खींची थी जिसमें झुर्रियों से भरे हाथों में दो नन्हें हाथ थे, नई पीढ़ी को पुरानी का संरक्षण दिखाया था उन्होंने. फेमस ट्रेडीशनल स्कल्पचर आर्टिस्ट दिनेश प्रताप सिंह ने मां की ममता दिखाने के लिए एक स्त्री द्वारा पक्षी को स्तनपान कराते दिखाया. एक आर्ट डिस्प्ले में श्रुति ने ऐसा कोलाज बनाया जिसमें पेपर्स और मैग्जींस की वह कटिंग लगाई थीं जिसमें प्रेमी युगलों की खबरें थीं. सेव एनवायरमेंट के संकल्प को दम देने वाली पेंटिंग्स में वह सब-कुछ इमैजिनेशन से ही डाला जाता है जो पर्यावरण की आदर्श स्थितियों में होता होगा. वेस्टर्न आर्टिस्ट पॉल गॉगिन ने द येलो क्राइस्ट बनाया, जीजस के क्रूसीफिक्शन दिखाने वाली इस कृति ने उस दौर में हंगामा मचा दिया था. एक और पेंटिंग में आम आदमी की सोच वेयर डू वी कम फ्रॉम. व्हॉट आर वी, वेयर आर वी गोइंग टू को उभारा, जिसमें रहस्य और बेचैनी दोनों दिखती हैं. इसमें बहुत सारे फिगर्स हैं जो चिंतामग्न हैं, नेचुरल सीन्स कमाल के हैं. तो वेन गफ ने गेहूं के खेतों पर आश्चर्यजनक ढंग से प्रकृति चित्रण किया. उनकी कल्पना शक्ति अद्-भुत थी. यानि यह सच है कि आर्ट की बात हो और इमैजिनेशन न हो, ये तो हो ही नहीं सकता. नई पीढ़ी भी यह काम ढंग से कर रही है.<br /><br /><span style="font-weight:bold;"><br />कृपया यहां भी देखें मेरा यह आर्टिकल-</span><br /><a href="http://inext.co.in/epaper/inextDefault.aspx?pageno=12&editioncode=1&edate=7/6/2010">http://inext.co.in/epaper/inextDefault.aspx?pageno=12&editioncode=1&edate=7/6/2010</a><br /><br />दैनिक जनसत्ता ने लेख को स्थान दिया है, देखने के लिए कृपया निम्न लिंक क्लिक करें और 19 जुलाई 2010 का अंक देखें। इस अंक में पेज नंबर चार (संपादकीय) पर लेख प्रकाशित हैः-<br /><a href="http://www.jansattaraipur.com/">http://www.jansattaraipur.com/</a>Uttamahttp://www.blogger.com/profile/02850421830553640513noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3096133054268368082.post-68799323646573264072010-05-12T08:07:00.004+05:302010-05-14T08:28:47.735+05:30समर कैंप में कलाबाजी<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgZE-2aN51K_AVj6F3sUPr5iCz9o5rSwpKkpG4o5D6F2alWzefxMoC0zqrsxjGkCIcXsfCWzYmuG5reVmsaZnpb50FSi8oWyG5xLJKnQ7T7jPRoyKhoUUIvAmkadefe9GEnTPMD4HyZPw/s1600/summer+camp.jpg"><img style="display:block; margin:0px auto 10px; text-align:center;cursor:pointer; cursor:hand;width: 200px; height: 134px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgZE-2aN51K_AVj6F3sUPr5iCz9o5rSwpKkpG4o5D6F2alWzefxMoC0zqrsxjGkCIcXsfCWzYmuG5reVmsaZnpb50FSi8oWyG5xLJKnQ7T7jPRoyKhoUUIvAmkadefe9GEnTPMD4HyZPw/s200/summer+camp.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5470954483746435554" /></a> उफ! गर्मियों ने बुरा हाल करना शुरू कर दिया है. इलेक्ट्रिसिटी जैसी ढेरों प्रॉब्लम्स सामने खड़ी हैं जो हाल बेहाल कर रही हैं. लगभग सभी शहरों के यह हालात हैं. अप्रैल से लगभग सितंबर तक चलने वाला समर सीजन कलाकारों के लिए भी कष्ट का होता है पर पर्सनली ही, प्रोफेशनली नहीं. कई जगह समर वैकेशन शुरू हो गया है तो कहीं शुरू होने वाला है. आर्ट स्टूडेंट्स के लिए कुछ कर दिखाने के दिन हैं ये. महीने-डेढ़ महीने के थकाऊ एक्जामिनेशन पीरिएड के बाद आराम के बजाए काम में जुटना है उन्हें. तैयारियां भरपूर हैं. किसी की प्लानिंग घूमकर लैंडस्केप में महारथ हासिल करने की है तो कोई स्कैचिंग करेगा और कोई समर कैंप्स में प्रतिभा निखारेगा. वहीं किसी ने अपने शहर-गांव न जाकर पूरा समय आर्ट के लिए यूटीलाइज करने की सोची है. मैं नहीं जानती कि किसी स्टूडेंट ने छुट्टियां आराम से बिताने का डिसीजन लिया हो. सही मायने में तो गर्मियों के यह दिन आर्ट फील्ड में नई कोपलें फूटने के हैं. अन्य फील्ड्स में जहां काम गर्मी में प्रभावित होता हैं, वहीं आर्ट में नई फसल उगती है. समर कैंप्स में तमाम बच्चे आर्ट को करियर बनाने का मन बनाते हैं, क्रिएटिविटी डेवलप होती है. वहीं यूजी-पीजी आर्ट स्टूडेंट्स कूची-कैनवस के खेल में और बहुत-कुछ सीख लेते हैं.<br />दिन जब बोरियत से भरा हो तो समर कैंप्स भला क्यों रास नहीं आएं? एंज्वॉयमेंट के साथ ही सीखने का भरपूर मौका जो है यहां. आर्ट फील्ड में यह कैंप बड़ा रोल अदा करते हैं. शहरों में तमाम समर कैंप आर्ट सिखाते हैं. कुछ फायदा हो या न हो, तमाम बच्चे यह तो जान ही जाते हैं कि कैसे हाथ साधकर ब्रश चलता है? कलर कैसे यूज किए जाते हैं? टाइम की लिमिट तय हो तो कैसे कोई आर्ट पूरी की जाती है? यह सब-कुछ सीख लिया तो क्या कहने. मैं नहीं कहती कि कैंप आर्गनाइज करने वाले सभी लोग ईमानदारी से काम करते हैं. यह सच है कि ढेरों लोगों के लिए यह सिर्फ कमाई का जरिया है लेकिन आर्ट के तमाम स्टूडेंट्स और स्ट्रगलर्स इन्हीं कैंप्स के जरिए कुछ महीने रेगुलर कमाई कर लेते हैं. बनारस में मेरे स्टूडेंट्स को यह असानइमेंट मिले हैं. अलीगढ़ एक्जाम लेने गई तो पता चला कि वहां के तमाम समर कैंप्स में एएमयू के फाइन आर्ट स्टूडेंट्स पार्टिसिपेंट्स को सिखाते हैं. आगरा में वहां के ललित कला संस्थान के स्टूडेंट्स यह काम बखूबी करते हैं. लखनऊ, कानपुर, मेरठ हो या फिर बरेली, सभी जगह यह चल रहा है. देहरादून में तो हिल एरिया बोनस हैं कैंप्स पार्टिसिपेंट्स के लिए.<br />छुट्टियां शुरू होने से पहले एक्जाम्स के दौरान ही स्टूडेंट्स हम टीचर्स से यह पूछने लगते हैं कि समर कैंप्स कहां लग रहे हैं और उनमें कैसे पार्टिसिपेट करें. कुछ अपने दम पर तलाश लेते हैं. बिहार-झारखंड के कई स्टूडेंट हैं बीएचयू में, मुझे बताया है उन्होंने कि वह छुट्टियां तो घर में बिताएंगे ही, कैंप भी लगाएंगे यानि समर वैकेशन में वो आर्ट के अंबेसडर रहेंगे. इन कैंप्स में पेंटिंग के साथ ही एप्लाइड आर्ट, म्यूरल, सेरामिक, पॉटरी, ग्राफिक्स जैसी कला की विधाएं सीखने को मिलती हैं. हर स्टेट में वहां की ललित कला एकेडमी का कैंप लगता है. मौका होता है सीखने का. जिनमें कुछ भी फीस नहीं देनी होती और सर्टिफिकेट भी मिलता है. मुझे आगरा में एकेडमी का कैंप आर्गनाइज करने की जिम्मेदारी मिली थी. उस कैंप में हिस्सा लेने वाले इंटरमीडिएट के आठ-नौ बच्चों को मैं जानती हूं जिन्होंने ग्रेजुएशन में आर्ट को सब्जेक्ट के रूप में चुना और बीए फाइन आर्ट्स या बीएफए में एडमीशन लिया. उन्हीं में दो तो आज भी मेरे स्टूडेंट हैं. इन कैंप्स से इतना क्रेज डेवलप होता है कि इंजीनियरिंग-डॉक्टरी को करियर बनाने का फैसला कर चुके स्टूडेंट्स भी पहुंचते हैं. इसी क्रेज का नतीजा है कि बड़ी-छोटी कई यूनिवर्सिटीज ने सर्टिफिकेट कोर्स शुरू कर दिए हैं. यहां अन्य फैकल्टीज के स्टूडेंट एडमीशन लेते हैं. सालभर सीखने के बाद उनका एग्जाम लिया जाता है. फिर सर्टिफिकेट मिलता है. इन कोर्सेज में यह जरूरी नहीं कि आप आर्ट के ही स्टूडेंट हों. आश्चर्य तब होता है जब बीटेक और एमबीबीएस के स्टूडेंट अपनी कठिन पढ़ाई के साथ ही आर्ट के इंट्रेस्टिंग पीरिएड के लिए समय निकालते हैं. मतलब साफ है कि यह कैंप गर्मियों का असर कम करने के साथ ही कई नई शुरुआतों की नींव डाल रहे हैं.<br /><br /><span style="font-weight:bold;">कृपया मेरा यह आर्टिकल यहां भी पढ़ें:-</span><br /><a href="http://inext.co.in/epaper/inextDefault.aspx?pageno=12&editioncode=1&edate=5/11/2010">http://inext.co.in/epaper/inextDefault.aspx?pageno=12&editioncode=1&edate=5/11/2010</a>Uttamahttp://www.blogger.com/profile/02850421830553640513noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-3096133054268368082.post-71270820849463782432010-04-07T10:36:00.007+05:302010-04-08T07:24:13.261+05:30सानिया को तो बख्शिए<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj_Nmolh5Swufm4XqNK0fnEdSrfP7kxHdkHDxtkUMO1em0cqRNCpom0_WcEfVoRihp17QD9bPxagBR8hdrwZbkdV1d-HHzqUBoWKxtXaDmvG2k2tvTTsW7JAf_TqJi6m515tcRMAdUwUA/s1600/aeiysha-shoaib-sania.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 200px; height: 92px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj_Nmolh5Swufm4XqNK0fnEdSrfP7kxHdkHDxtkUMO1em0cqRNCpom0_WcEfVoRihp17QD9bPxagBR8hdrwZbkdV1d-HHzqUBoWKxtXaDmvG2k2tvTTsW7JAf_TqJi6m515tcRMAdUwUA/s200/aeiysha-shoaib-sania.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5457579051355434754" /></a><br />विवाद निपटा, अब तो छोड़िए सियासत और अपने भारत की टेनिस सनसनी सानिया मिर्जा के निकाह का जश्न मनाइये। खुश होइये कि सानिया बेशक पाकिस्तान की बहू बनने जा रही हैं लेकिन खेलती रहेंगी अपने वतन के लिए और तो और... वो पाकिस्तान में रहेंगी भी नहीं। आम भारतीय हैं हम, क्यों सियासतदां बनने का दुष्प्रयास कर रहे थे। सिने स्टार रीना रॉय ने भी सानिया के भावी क्रिकेटर शौहर शोएब मलिक के हमपेशा मोहसिन खान को चुना था, तब बात आसानी से पच क्यों गई थी? मैं आगरा में थी तब एक मामला उछला था। एक पंजाबी लड़की ने मुस्लिम लड़के से निकाह कर लिया तो हिंदूवादी संगठनों ने ताल ठोक दी। लड़की के घर पर पहरा बैठा दिया गया, लड़के पर हमले तक हुए। एक डिग्री कॉलेज में खूब हंगामा हुआ जहां एक विधायक (अब पूर्व) की शह पर मेरिट में न होने के बावजूद तमाम मुस्लिम लड़कों के प्रवेश कर लिये गए थे। कहीं की भड़ास, निकली कहीं। तब यह आंकड़ा वहां आम हुआ कि कई मुस्लिम लड़कों ने हिंदू लड़कियों से निकाह किया है जबकि मुस्लिम लड़की से शादी करने वाले हिंदू लड़कों की संख्या बेहद कम थी, यह हजम नहीं हो पा रहा था। हिंदूवादी कहे जाने वाले एक संगठन की तो लड़ाई ही इसीलिये है। पर सानिया के मामले में, हिंदूवादी ही उबल रहे हैं। हम दोगले क्यों हो जाते हैं ज्यादातर मामलों में? शोएब ने एक और हिंदुस्तानी लड़की आयशा सिद्दीकी से पहले निकाह किया था और फिर छोड़ दिया। पुलिस अपना काम कर रही थी और शोएब उसका सहयोग। पूछताछ कर ली गई थी। उसका पासपोर्ट जब्त कर लिया गया था। कहने का मतलब यह है कि कानून अपना काम कर रहा था और आरोपी भी भारत में रहकर कानून की मदद करने का ऐलान कर चुका था। शोएब अपना पक्ष खुलकर रख रहे थे, जबकि आयशा छिपकर और वकील के जरिए। उन्होंने सनसनीखेज इल्जाम लगाया कि वो गर्भवती हो गई थीं। इसके बाद उनका गर्भपात भी हुआ। वकील के मुताबिक वह डिप्रेशन में है। उसे डायबिटीज है, वजन बहुत बढ़ गया है। शोएब के झूठ ने मुझे बर्बाद कर दिया है इसलिए मैं सामने नहीं आ रही। मामला विशुद्ध रूप से व्यक्तिगत था। किसी के व्यक्तिगत मामले में टांग अड़ाना कहां की मानवता है? हम शादी-ब्याह जैसे नितांत व्यक्तिगत मामलों में पंच क्यों बन जाते हैं? मतदाता हमारे उठाए मुद्दों को नकार देते हैं और सत्ता से धड़ाम हो जाते हैं पर मानते नहीं। कैसा सबक चाहते हैं हम? अरे, निकाह हुआ भी है तो तलाक का प्रावधान तो भारतीय कानून और इस्लामी नियम, दोनों में है। सानिया से निकाह करना है तो शोएब को आयशा को तलाक दे देते। और दे भी रहे हैं। मामले पर पर्दा जल्दी गिरना जरूरी था। पाकिस्तान से संबंधों पर भी इसका असर होने लगा था। दोनों तरफ की सियासत आमने-सामने आ रही थी। विवाद अभी भी थमेगा, इसमें शक है क्योंकि हिंदुस्तानी लड़की और पाकिस्तानी शौहर का मुद्दा तो जिंदा है कुछ लोगों के लिए लेकिन क्या चाहते हैं हम, हारी हुई सानिया? थकी और हताश सानिया? क्यों हम अपने एक खिलाड़ी का बेड़ा गर्क करने में तुले हैं?Uttamahttp://www.blogger.com/profile/02850421830553640513noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-3096133054268368082.post-68856770757997034982010-04-06T08:44:00.006+05:302010-04-06T20:01:15.120+05:30Old art, New followers<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhtNJVlNdn8cs5Vixq4dlDocPPE_wtL8aDDJq2kjZOcul6NHbmsqzIlUkmFivFg66A67sLKqBYJf8WcW79PpQVFp7pptBlIa_lkK1lg8X1LRrWeKxs8sBQCw2XKmIiUoWn-1pdDX9jf8Q/s1600/saree_raja+ravi1.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 149px; height: 200px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhtNJVlNdn8cs5Vixq4dlDocPPE_wtL8aDDJq2kjZOcul6NHbmsqzIlUkmFivFg66A67sLKqBYJf8WcW79PpQVFp7pptBlIa_lkK1lg8X1LRrWeKxs8sBQCw2XKmIiUoWn-1pdDX9jf8Q/s200/saree_raja+ravi1.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5456859851299944242" /></a><br />आज-कल के यंगस्टर्स का भी जवाब नहीं. अगर कोई आर्ट फील्ड का यंगस्टर है तो बात कुछ और ही हो जाती है. पुराने काम में नए स्कोप तलाशना और उसे आकार देना, खूब शानदार ढंग से कर रहे हैं नई जनरेशन के यह आर्टिस्ट. खास तो यह भी है कि यह लोग किसी रिलीजन के हों, इससे फर्क नहीं पड़ता. देखिए जिस राजा रवि वर्मा से पुराने आर्टिस्ट यह कहकर परहेज करते रहे कि यह कैलेंडर आर्ट के ही स्पेशलिस्ट हैं, उन्हीं को यह जनरेशन फॉलो करने से नहीं हिचक रही. काम तो ही रहा है, दाम मिल रहे हैं और वह भी खूब सारे. बिगेनर्स भी पीछे नहीं क्योंकि ये कॉपी आर्ट ईज़ी है और बायर्स की पसंदीदा भी.<br />राजा रवि वर्मा हैं कौन? क्यों इन्हें आज भी इतनी पॉपुलरेटी हासिल है? दरअसल, भारत में आयल पेंटिंग शुरू करने वाले राजा रवि वर्मा की कलाकृतियां एक इतिहास हैं. यह वो कलाकार हैं जिन्होंने पहली बार इंडिया में आर्ट को आम आदमी से जोड़ा. ज्यादातर काम उन्होंने हिंदू देवी-देवताओं पर किया है. रामायण-महाभारत से जुड़ी जिन इमेजेस की हम कल्पना करते हैं, वो ज्यादातर राजा रवि वर्मा की ही बनाई हुई हैं. राजा ने अपनी आर्ट में वेस्टर्न और इंडियन स्टाइल का तालमेल बैठाया और हिट हो गए. हिंदुओं के देवी-देवता उनके सब्जेक्ट बने. ब्रिटिश रूल में पेंटिंग्स इतनी महंगी थीं कि आम लोग खरीदने की सोच भी नहीं सकते थे इसलिये लीथोग्राफी प्रेस लगाकर इतना सस्ता बना दिया कि घर-घर में पहुंच गईं. इंडियन सिनेमा का यह बिगनिंग पीरिएड था, आउटडोर शूटिंग की संभावनाएं नहीं थीं इसलिये रवि वर्मा की कला की मदद ली गई. उस समय की फिल्म्स में नल-दमयंती, शकुंतला और रामायण का जब उल्लेख हुआ, राजा रवि वर्मा के चित्र यूज किए गए. विश्व की सबसे महंगी साड़ी राजा रविवर्मा के चित्रों की नकल से सुसज्जित है. बेशकीमती 12 रत्नों व धातुओं से जड़ी 40 लाख रुपये की साड़ी को दुनिया की सबसे महंगी साड़ी के तौर पर लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड रेकार्ड में शामिल किया गया है. ब्रिटिश रूल में त्रावणकोर के महाराज और उनके भाई की मद्रास के गवर्नर जनरल रिचर्ड टेंपल ग्रेनविले से मुलाकात पर बनाई उनकी एक पेंटिंग 1.24 मिलियन डॉलर में बिकी है.<br />बायर्स ज्यादातर पेंटिंग के सब्जेक्ट की ब्यूटी को देखते हैं. राजा का वर्क रियलिस्टिक है, इसमें जो सफाई और बारीकी नजर आती है, वो मॉर्डर्न आर्ट में कहां? एक बड़ा वर्ग इसे ही पसंद करता है और चाहता है कि इसकी एक कॉपी उसके पास भी हो. कला रचने से पहले घूमने-फिरने के शौकीन नए जमाने के आर्टिस्ट राजा रवि वर्मा की पेंटिंग्स में अपने हिसाब से जोड़-घटा भी लेते हैं. इनमें उन्हें लैंडस्केप का स्कोप भी नजर आता है. एक ही पेंटिंग में वो नेचुरल सीन्स की बदौलत लैंडस्केप का शौक पूरा कर लें और साथ ही रियलिस्टिक वर्क में अपने सधे हाथों का कमाल भी दिखा दें तो सोने पर सुहागा जैसी स्थिति ही कही जाएगी. कला की फील्ड में सक्रिय सभी लोग जानते हैं कि लैंडस्केप के बाद सबसे ज्यादा बिकने वाला काम रियलिस्टिक ही है. मायथोलॉजिकल सब्जेक्ट शुरू से सदाबहार हैं पेंटिंग मार्केट में.<br />एक बात और भी है, घरो में सुंदर कैलेंडर्स को कई साल तक न हटाने वाले लोगों की संख्या भी कम नहीं. यह वह लोग है जो साल गुजरने के बाद कैलेंडर्स के नीचे से डेट वाला सेक्शन रिमूव कर देते हैं और उसे किसी पेंटिंग की तरह यूज करते हैं. इसका इकोनॉमिक रीजन नहीं बल्कि सुंदरता के प्रति प्रेम है. यह लोग इस तरह की पेंटिंग्स के कस्टमर्स भी हैं. हाल ही में दिल्ली की एक गैलरी में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के एक्स स्टूडेंट भी एक्जीबिशन में राजा रवि वर्मा की मायथोलॉजिकल थीम पेंटिंग्स भी थीं जबकि आर्टिस्ट हिंदू नहीं, मुस्लिम है. स्ट्रगलर आर्टिस्ट भी ऐसी ही पेंटिंग्स बनाकर अपना गुजारा कर लेते हैं. दिल्ली-मुंबई के आर्ट मार्केट में उन जैसों की आर्ट बल्क में उपलब्ध है और बिकती रहती है. आनलाइन गैलरीज में भी यह हॉट प्रोडक्ट हैं. आर्ट के स्टूडेंट्स में भी राजा के खूब फॉलोअर नजर आ जाते हैं. राजा ने जो रचा, उसे पसंद करने वाले हैं और रहेंगे. साथ ही नई पीढ़ी के आर्टिस्ट्स की वजह से भी इस आर्ट का भविष्य अच्छा नजर आता है.<br /><span style="font-weight:bold;">(चित्र में वही साड़ी है जो राजा रवि वर्मा की कला से सुसज्जित है और 40 लाख रुपये में बिकी है)</span><br /><br />मेरी यह पोस्ट यहां भी पढ़ें-<br /><a href="http://inext.co.in/epaper/inextDefault.aspx?pageno=12&editioncode=5&edate=4/6/2010">http://inext.co.in/epaper/inextDefault.aspx?pageno=12&editioncode=5&edate=4/6/2010</a>Uttamahttp://www.blogger.com/profile/02850421830553640513noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-3096133054268368082.post-85543584866497027042010-03-12T08:07:00.010+05:302010-04-03T08:17:11.620+05:30EXPRESSIONS: a solo show by uttama<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg50l68GNsj-e7Ct4gm0_ClJZF1bOWhmr-JtjWHg3KoEdp-5mnODn4QJZnsXdTa7QxxxZWCgMqNOsg8R5ZQmFsG1azxD2nF8fl-6DM0WLHCu-XiDyFo5jegPcElMLLxRy_Z40kkpZIv5g/s1600-h/exhibition.jpg"><img style="float:right; margin:0 0 10px 10px;cursor:pointer; cursor:hand;width: 200px; height: 133px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg50l68GNsj-e7Ct4gm0_ClJZF1bOWhmr-JtjWHg3KoEdp-5mnODn4QJZnsXdTa7QxxxZWCgMqNOsg8R5ZQmFsG1azxD2nF8fl-6DM0WLHCu-XiDyFo5jegPcElMLLxRy_Z40kkpZIv5g/s200/exhibition.jpg" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5447571776516386082" /></a><br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgLWpVe7L0fA-aeNa7K0Cnxa6IRGKf-dZ5f46BSVZ0-p6d78fqCTQEkwSPaJTpcbMQ_-JUToQKOADpqhcTdvydq-P7NyK1AMRD1_1cuTmjF47eC2pARFZcm1xoYuyJoJCQyvSfjt5F_Sw/s1600-h/museum.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 200px; height: 127px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgLWpVe7L0fA-aeNa7K0Cnxa6IRGKf-dZ5f46BSVZ0-p6d78fqCTQEkwSPaJTpcbMQ_-JUToQKOADpqhcTdvydq-P7NyK1AMRD1_1cuTmjF47eC2pARFZcm1xoYuyJoJCQyvSfjt5F_Sw/s200/museum.jpg" border="0" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5447571617182280066" /></a><span class="Apple-style-span" style="font-family:'trebuchet ms', verdana, arial, sans-serif;font-size:small;"><span class="Apple-style-span" style="font-size:medium;">इलाहाबाद संग्रहालय में दस दिवसीय मेरी प्रदर्शनी रविवार 21 मार्च को समाप्त हो गई। दर्शकों के उत्साह को देखते हुए इसे एक दिन और बढ़ा दिया गया था। यहां मैंने अपनी कामायनी, बनारस, ट्राइब्स, नेचर और कंपोजिशन टॉपिक्स पर 39 पेंटिंग्स का प्रदर्शन किया। जयशंकर प्रसाद की कामायनी सीरीज की नई पेंटिंग्स भी इनमें शामिल हैं। कमला नेहरू रोड पर चंद्रशेखर पार्क में स्थित केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय के म्यूजियम में कला प्रदर्शनी का उदघाटन पुलिस महानिरीक्षक चंद्रप्रकाश ने किया। उन्होंने कहा कि चित्रों में सजीवता है। कलाकार अपने उद्देश्यों में पूरी तरह कामयाब रहा है। विजिटर बुक में आईजी ने लिखा कि उत्तमा की पेंटिंग्स उम्दा हैं, उनसे विभिन्न प्रकार के संदेश मिलते हैं। बुक में तमाम दर्शकों ने अपने कमेंट्स लिखे हैं और कृतियों को सराहा है। अंतिम दिन वर्धा निवासी हरविलास मुत्तेमवार ने मुझे लिखकर दिया कि आपकी कला पर नजरें ठहर जाती हैं। मैं इलाहाबाद में तीन दिन रहा और तीनों दिन प्रदर्शनी देखने का लोभ संवरण नहीं कर पाया। संग्रहालय आने का यह जैसे बोनस था। संग्रहालय ने आने वाले हर दर्शक को प्रदर्शनी का ब्रोशर भेंट किया।</span><i><br /></i><i><br /></i><i><br /></i><i><b>प्रदर्शनी का कवरेज देखने के लिए निम्न लिंक क्लिक करें:-</b></i></span><div><span class="Apple-style-span" style=" color: rgb(119, 119, 119); font-family:'trebuchet ms', verdana, arial, sans-serif;font-size:small;"><i><b></b></i><i><a href="http://in.jagran.yahoo.com/epaper/index.php?location=15&edition=2010-03-12&pageno=6" style="font-weight: bold; color: rgb(51, 102, 204); ">http://in.jagran.yahoo.com/epaper/index.php?location=15&edition=2010-03-12&pageno=6</a></i></span></div><div><span class="Apple-style-span" style=" color: rgb(119, 119, 119); font-family:'trebuchet ms', verdana, arial, sans-serif;font-size:small;"><a href="http://inext.co.in/epaper/Default.aspx?edate=3/12/2010&editioncode=12&pageno=5">http://inext.co.in/epaper/Default.aspx?edate=3/12/2010&editioncode=12&pageno=5</a></span></div>Uttamahttp://www.blogger.com/profile/02850421830553640513noreply@blogger.com5