उत्सव का नाम पहले भी सुना है मैंने। टेनिस खिलाड़ी रुचिका गेहरोत्रा को आत्महत्या के लिए मजबूर कर देने वाले हरियाणा के पूर्व पुलिस महानिदेशक एसपीएस राठौड़ पर छोटे से चाकू से हमला करने वाला उत्सव ऐसा क्यों कर बैठा, कोई नहीं समझ पा रहा। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की फाइन आर्ट्स फैकल्टी में बीएफए का यह गोल्ड मेडलिस्ट सबको याद है। गोल्ड मेडलिस्ट है तो बताने की जरूरत नहीं कि एक्स्ट्रा आर्डिनरी परफॉर्मेंस की वजह से उसे सब जानते थे। उसके साथियों को याद है कि उत्सव में जबर्दस्त कांफिडेंस था। वह खुलकर कहता कि मेरा नेशनल स्कूल आफ डिजाइन में चयन होगा और ऐसा हुआ भी। एनआईडी भी कला के छात्रों का एक सपना होता है, खासकर एप्लाइड आर्ट स्टूडेंट्स के लिए। उत्सव ने वर्ष 2006 में एनीमेशन फिल्म डिजाइन के ढाई वर्षीय स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में प्रवेश लिया और वहां भी रंग जमा लिया। इस बात का उदाहरण उसकी शार्ट फिल्म चाय ब्रेक का प्रतिष्ठित अवार्ड के लिए चयन हो जाना है। मेधावी छात्र का इस तरह की वारदात कर बैठना चिंता पैदा करता है। मनो चिकित्सक मां प्रोफेसर इंदिरा शर्मा के अनुसार, वह डिप्रेशन का शिकार था और अहमदाबाद में चार माह से उसका इलाज चल रहा था। एसोसिएशन आफ साइकियाट्रिस्ट इन यूएस की एक रिपोर्ट कहती है कि कलाकारों में डिप्रेशन के मामलों की संख्या ज्यादा होती है, विशेषकर फाइन आर्ट्स से जुड़े लोगों में। यह भी सच है कि कलाकार अधिक संवेदनशील भी होते हैं। उत्सव भी कलाकार है। पिता प्रो. एसके शर्मा बताते हैं कि वह कुछ दिन से न्याय-अन्याय की ज्यादा बातें करने लगा था। हम भी उद्वेलित होते हैं और रुचिका प्रकरण तो है ही ऐसा।
पुलिस का एक अफसर उभरती हुई टेनिस खिलाड़ी को विदेश जाने से रोक लेता है। अभद्रता करता है और शिकायत न की जाए, इसके लिए परिवार पर जमकर दबाव बनाया जाता है। इससे ज्यादा बेशर्मी क्या होगी कि मुंह न खोलने देने के लिए भाई की गिरफ्तारी कर ली जाती है। आरोप लगाया जाता है कार चोरी का। यही नहीं, फिर हरियाणाभर में कार चोरी के मामलों में उसका नाम जोड़ा जाने लगता है। चंडीगढ़ के स्कूल से सिर्फ फीस लेट हो जाने पर रुचिका का नाम काट दिया जाता है। पिता और बाकी परिवार अघोषित नजरबंदी का शिकार बनता है और नतीजा, अभद्रता की शिकार चौदह साल की रुचिका आत्महत्या कर लेती है। चंद लाइनों में मैंने जो कहानी कहने की कोशिश की है, वास्तव में वह मन में आक्रोश का हजारों लाइनें पैदा कर देती है। एक अफसर और उसके सामने पूरे प्रदेश के पुलिस तंत्र का नतमस्तक हो जाना एवं नेताओं के साथ रिश्तों की बदौलत साथ ही उसे प्रोन्नति मिलते जाना, अकल्पनीय तो नहीं लेकिन शर्मनाक है। गण के इस तंत्र में गण ही कहीं गौण सा है और उसकी कहीं कोई सुनवाई नहीं। और तो और... पीड़ित परिवार को किसी तरह न्याय की उम्मीद बंधती है तो उसमें भी रोड़े डाल दिए जाते हैं। राठौड़ सजा सुनाए जाने के बाद भी आजाद है तो क्यों कोई उत्सव का आक्रोश न भड़के। बकौल प्रो. इंदिरा, उनके यहां कोई भी रुचिका के परिवार को नहीं जानता। ऐसे में उत्सव में जो आक्रोश पैदा हुआ, वह अन्याय की खबरें सुनकर हुआ। वह चंडीगढ़ में था, राठौड़ की पेशी और रुचिका कांड की खबरें वहां हवा में घुली हुई हैं तो वह कैसे बचता। जब पूरा देश प्रतिक्रिया में है तो चंडीगढ़ में तो यह स्थिति और भी तीव्र हो जाती है। जब आम मुजरिम को थर्ड डिग्री से नवाजने वाली पुलिस राठौड़ को किसी वीआईपी की तरह ट्रीट करे, जैसे वह अब भी उनका अफसर हो तो हिंदुस्तान में अपराधी के हिस्से आने वाली यह थर्ड डिग्री देने के लिए कोई उत्सव तो आएगा ही। वैसे, शुक्र अदा करने की बात यह है कि राठौड़ को सजा देने की तैयारी शुरू हुई है। उसकी पेंशन काटी जा रही है, हरियाणा के मुख्यमंत्री सख्त हैं। उत्सव उन भावनाओं का प्रतीक है जो रुचिका प्रकरण में हर आम भारतीय के मन में घुमड़ रही हैं लेकिन बाहर नहीं आ पा रहीं। उत्सव के साथ शायद कानून नहीं होगा लेकिन भीड़ है तमाम भारतवासियों की। एक मेधावी छात्र के एकाएक अपराधी बन जाने की वजह जो है, उससे तो वह कानून से भी क्षमा का हकदार है। बहरहाल, कोर्ट ने उसे सशर्त जमानत पर छोड़ने के आदेश दे दिए हैं और एनआईडी के निदेशक प्रद्युम्न व्यास ने उत्सव के विरुद्ध फिलहाल किसी भी तरह का एक्शन न लिये जाने का फैसला किया है क्योंकि इंस्टीट्यूट का एकेडमिक पैनल कोई एक्शन नहीं चाहता।
न्यूज पेपर आईनेक्स्ट, हरिभूमि और डेली न्यूज एक्टिविस्ट के समस्त संस्करणों में इस पोस्ट ने स्थान पाया है, लिंक निम्न हैं --
http://inext.co.in/epaper/Default.aspx?editioncode=5&edate=2/10/2010
http://inext.co.in/epaper/Default.aspx?pageno=10&editioncode=5&edate=2/10/2010
http://inext.co.in/epaper/Default.aspx?edate=2/11/2010&editioncode=5&pageno=7
http://119.82.71.95/haribhumi/epapermain.aspx?queryed=9&eddate=2%2f10%2f2010
(turn to page no. 4)
http://65.175.77.34/dailynewsactivist/epapermain.aspx?queryed=9&eddate=2%2f11%2f2010
(turn to page no. 9)
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मीडिया जगत की सर्वाधिक चर्चित साइट भड़ास4मीडिया ने भी जिक्र किया है इसका:-
http://bhadas4media.com/index.php?option=com_content&view=article&id=4114:utsav-chaku&catid=27:latest-news&Itemid=29
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पोस्ट विभिन्न रूपों में ब्लॉग्स पर भी है, नीचे दिए गए लिंक्स को क्लिक करें और पढ़ें--
http://tetalaa.blogspot.com/2010/02/blog-post_7641.html
http://shabdgunjan.blogspot.com/2010/02/blog-post.html
http://rangkarmi.blogspot.com/2010/02/blog-post.html
http://blogonprint.blogspot.com/2010/02/inext_11.html
http://nayathaur.blogspot.com/2010/02/blog-post_10.html
Tuesday, February 9, 2010
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33 comments:
अनुपम का आक्रोश स्वाभाविक था ,इस आक्रोश को अपराध कहना अस्वाभाविक है ,आप सही कहती हैं देश के युवा उसके साथ हैं |
aadarniya!
utsav ka aakrosh dekhkar or aapka sshakt aalekh padhkar vastav me laga chetna abhi mari nahin hai.
rahi baat utsav ke aakroshit hone ki to yeh sahaj vriti hai. naari shakti dropdi ke apman ki hi to baat thi
एक द्रोपदी! हां वही पांचाली। एक रजस्वला स्त्री जिसे दु:शासन ने वस़्हीन करके दुर्योधन की जांघ पर बिठाने का प्रयास मात्र किया और इतना बड़ा युद्ध हो गया। महाभारत हो गया। जिसमें लाखों यौद्धाओं का खून बह गया। आज सैकड़ों बालाएं रोज लूटी जाती है, लेकिन शक्ति पुत्रों में से किसी एक का भी खून नहीं खौलता। जैसे उनके रक्त को शीत ज्वर हो गया या उनकी चैतन्यता को काठ मार गया। क्या स्त्री शक्ति इसी तरह लूटी जाएगी और हम उसमें सहभागी बनेंगे? अथवा देखते रहेंगे। हो क्या गया है हमारे अहसासों को। कहां गया हमारा ईश्वरीय भाव। मेरी तो सोच यह है कि राष्ट्र को नारी शक्ति की महत्ता समझनी होगी|
yah chetna jab utsav jaise yuvaon ke antarman ko jhakjhorti hai tab rathore jaise logon ke saath to isse bhi bura hshra hona chahiye.
with regard
pradeep
"उत्सव के साथ शायद कानून नहीं होगा लेकिन भीड़ है तमाम भारतवासियों की। एक मेधावी छात्र के एकाएक अपराधी बन जाने की वजह जो है, उससे तो वह कानून से भी क्षमा का हकदार है"
आप सही कह रही हैं इसलिए पूर्ण समर्थन.
उत्सव के आक्रोश और और उसकी मनः स्थति को अच्छा बया न किया है अपने और यह भी सही है है की उत्सव सहस्रों लोगों के आक्रोश की अभिव्यक्ति का नुमायिन्दा बन गया है मगर संवेदनशील लोगों का ऐसे कदम उठा लेना उनके लिए कतई उचित नहीं है -उत्सव को अपनी ऊर्जा और बृहत्तर उद्येश्यों ,सार्थक कार्यों में लगानी चाहिए न कि ऐसे छिट पुट यद्यपि कि बेहद घृणित वारदातों में अपव्यय' करनी चाहिए -अपने इस मुद्दे को अपने ब्लॉग पर लिया यह आपके संवेदनशील मन और सामान धर्मा कलाकारों के कुशलक्षेम के प्रति आपके गहरे जुड़ाव को दर्शाता है .
गुस्से में कोई करे भी तो क्या
उत्सव का आक्रोश व्यवस्था के खिलाफ असहज नहीं है, सहज है। जरूरी है। एक घिनौने कृत्य के खिलाफ उत्सव की पहल बताती है कि शोषण के खिलाफ उठने वाली आवाजें अक्सर उग्र हो जाया करती हैं। यह उग्रता कानून की निगाह में भले ही सही न हो मगर व्यवस्था के खिलाफ जाने का और रास्ता भी क्या है?
शायद मैं इकलौता ऐसा हूँ जो आपके कथन का समर्थन नहीं कर रहा हूँ.
इसका मतलब यह नहीं है की मैं राठोर के कुकृत्य का समर्थन करता हूँ, बल्कि इसलिए कि यह काम कोई आदर्श नहीं है.हो सकता है इस कृत्या से कुकर्मी राठौर को मीडिया हीरो बना दे. हमारा मीडिया ऐसे "वीरों" से खली नहीं है. देश कि न्याय व्यवस्था में मेरा विश्वास अभी भी है.
i also agree with utsav
manoj
'जिसकी लाठी उसकी भैंस' छाप इस व्यवस्था में हर ईमानदार आदमी की अंतिम नियति डिप्रेशन का शिकार होना ही है. जो नहीं हुए, वे या तो पलायनवादी हैं या समझौतावादी. हम सब, जो सामान्य दिखते हैं, कहीं न कहीं से पलायन या समझौते में से कोई एक अपराध तो करते ही हैं.
sahi kaha apne....afsos to is baat ka hai ki ye kaam logo ko pahle hi karna chahiye tha...chaku marne se mai sahmat nahi hoon par kam se kam samuhik pitai to hona chahiye thi rathore ki...aise logon ke liye to talibani kanoon hi theek rahta hai.
बहुत सही चिन्तन किया है आपने । संवेदनशीलता ने उसे यह करने पर विवश किया । टाली नहीं जा सकती अन्तर की तीव्र प्रेरणा न्याय-अन्याय के प्रतिरोध की ।
Har aadmi chahata hai ki phir koi Bhagat Singh Paida ho, lekin padosi ke ghar mein. Jis din har ghar me Utsav paida ho jayenge, jo dushron ke kilaph anyaya bhi bardaat na kar sake, ye sab apne aap band ho jayega. Main har prakar se Utsav ke saath hoon, aur hame uske samarthan me ek abhiyaan chalaana chahiye.
अपसे सहमत हूँ अन्याय आक्रोश को जन्म देता है और आक्रोश उत्सव जैसे लोगों को। सभी उसके साथ हैं धन्यवाद और शुभकामनायें
उत्सव का आक्रोश भारत की अधिकांश जनता के गुस्से का प्रतीक है....लेकिन एक मेधावी छात्र का आने वाला भविष्य अब शायद उतना सुनहरा न हो
lekin fir kanoon ka kya hoga. Apko nahi lagta ki agar Utsav ko hero banaya gaya to samaj me ek galat sandesh jayega.
उत्सव के संबंध में बेहतरीन जानकारी मिली है इस आलेख से....एक मेधावी नवयुवक का अचानक वायलेंट हो जाना उस नवयुवक के साथ-साथ उसकी जुड़ी दुनिया का विश्लेषण की मांग करता है.
दो बातें कहनी है , पहली ये कि उत्सव के बारे में बिल्कुल नई बातें पता चली जो चौंकाने वाली हैं । दूसरी ये कि उसका आक्रोश अपनी जगह बिल्कुल सही है । और चाहे लाख दुहाई दी जाए कानून की , या कि ये गलत संदेश देने जैसा काम हुआ है । मगर आने वाले समय में अभी बहुत से उत्सव समाज में से निकल के राठौडों के गले काटेंगे ......और यही होगा ...बदलाव न भी आया इससे तो कम से कम भय तो होगा ही उस जैसे लोगों को । उत्सव के लिए कोई बचाव मुहिम चलाई जानी चाहिए , ऐसा मुझे लगता है ,
अजय कुमार झा
आज की सडी हुई व्यवस्था मनुष्य को क्या न बना दे??
दूसरी बात कि अपना आक्रोश निकाला भी जाए तो कैसे ??
आपको याद होगा कुछ समय पहले राहुल नाम का नौजवान ऐसी ही ख़बरों से तंग आकर राज ठाकरे को मारने मुम्बई आ पहुंचा था !वो न तो विक्षिप्त था और ना ही अनपढ़!आज जिस तरह मिडिया एक ही खबर पर पूरे दिन हल्ला मचाता है उससे कोई भी प्रभावित हो सकता है!रुचिका मामला इतने सालो से चल रहा था,पर हव्वा मचने के बाद राठोर को हर कोई नफरत करने लगा..सही गलत जो भी हो..ज्यादा एक्सपोज़ करने से ही ये हुआ..
पूरी तरह सहमत
जो लोग नसीहते दे रहे है उन्हे दिनकर की कविता "नील कुसुम" के अन्श पढा देता हू..
है यहा तिमिर आगे भी ऐसा ही तम है
तुम नील कुसुम के लिये कहा तक जाओगे
जो गये वही तो आज तलक ना लौट सके
नादान मर्द तुम नाहक जान गवाओगे
पेमिका, अरे इन शोश बुतो का क्य कहना
ये तो यू ही उन्माद जगाया करती है
पहले तो लेती खीच प्रान के त्तारो को
फिर चुम्बन पर प्रतिबन्ध लगाया करती है
उनमे से किसने कहा चन्द से कम लुन्गी
पर चान्द धरा पर कौन यहा ला पाया है
किसका जहाज फिर नील नदी से लौट सका
है कौन यहा बिछडो की याद दिलाता है.
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यहा उसका उत्तर देखे
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हे नीतिकार तुम झूठ नही कहते होन्गे
बेकार मगर पगलो को ग्यान सिखाना है
मरने का होगा खौफ़ मौत की छाती मे
जो अपनी जिन्दगी ढूढने जाते है ?
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नीरज कहते है
दे रहा है आदमी का दर्द जब आवाज़ दर दर
तुम रहे चुप तो कहो सारा जमाना क्या कहेगा
उत्सव एक युवक का नाम नही है बल्कि एक बिल्कुल स्वभाविक प्रतिक्रिया का नाम है. आन्धिया और क्रन्तिया किसी देश राज्य के कानून की धाराये पढके नही आती.
युवक उत्सव के लिये जो भी करना हो जरूर किया जाना चाहिये.
aapki baat se sahmat hone ko ji chahta hai.
uttma ji aap ki baat se shmat hun aakhir aakrosh kahi na kahni to nikle ka raashta dhundega hi
saadar 3
praveen pathik
9971969084
आप के ब्लॉग को की चर्चा तेताला पर की है देखे
सादर
प्रवीण पथिक
9971969084
http://tetalaa.blogspot.com/2010/02/blog-post_7641.html
utsav ke aakrosh mekahin n kahi yuva-warg ka krodh-vishphoth bhi samahit tha.....
रुचिका के बारे में पता था मगर उत्सव के संबंध में कोई जानकारी नहीं थी, बताने का शुक्रिया.
ye bhaavnaayen thi, mere saamne ye ghtna hui. tareeka thoda galat tha per maksad bilkul paak.....
उत्तमा जी उत्सव के मनोभावों का हम भी अंदर से आदर करते हैं किन्तु जब कानून की बात आती है तो खामोश हो जाना पडता है. उत्सव जैसे आक्रोश आजकल के कई तरूणों में देखता हूं. यह समय देश के शिक्षकों और पालकों के लिये अहम है यह अच्छे संस्कारों का अतिरेक है हमें ऐसे अतिरेकों को भी रोकना होगा और आगामी पीढी को संयम से दुनिया बदलने हेतु संस्काररित करना होगा.
Uttma ji,
In your write-ups, you are highlighting very important issues pertaining to the common masses.
Please keep it up.
Rattan Sharma
sharmarattan@gmail.com
Utsay is right.It is the symbol of common people.
Violence has no place in a democracy so knife attack can not be justified.
But what would the commonmen do and where to go, when accused and criminals are laughing and victims and their families are wailing, hiding.
From law makers to judiciary, all have to take an early decision on the matter, before another person take up his weapon against another injustice in the country and people start justifying that...
aaj kee vyavastha dekh kar koi insaan isse alag aur kar v kya sakta hai...
बेहूदा हरकत और उसके आगे लाचार कानून व्यवस्था को देख कर किस युवा के रक्त में उबाल नहीं आएगा.उत्सव का आक्रोश वाजिब था लेकिन उसे व्यक्त करने के तरीके से मै सहमत नहीं हूँ .युवाओ के इस आक्रोश को सही दिशा दी जानी चाहिए .हमे उत्सव को भी हीरो नहीं बनाना चाहिए .इस आक्रोश को संगठित कर सही दिशा में ले जाना ज्यादा कारगर हो सकता है
mai in tamaam bato se ittefaq nahi rakhta kanoon ko apna kaaam karne de aur utsav ka vidrohi tewar aam vidyarthiyo ke liye galat asar chhor sakta hai
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