Tuesday, March 2, 2010
विवाद का स्थाई विषय-तस्लीमा
तस्लीमा नसरीन का जैसे विवादों से चोली-दामन जैसा साथ है। जहां तस्लीमा, वहां विवाद। इस बार तो बेवजह बवंडर में फंस गईं। लिखा भी नहीं कि मोहम्मद साहब बुर्के के विरोधी थे पर मीडिया ने तान दिया और दंगे भड़क गए। तस्लीमा नाम की आग ने कई बार झुलसाया है। तस्लीमा हैं क्या, क्यों होती है उनकी चर्चा और विवाद? क्यों वो अखबार की सुर्खियां बनती हैं? दरअसल, तस्लीमा हैं इसलिये खबर हैं। वो अपने आप में ऐसी शख्सियत हैं कि लोगों को हजम नहीं हो पातीं। वो आग उगलती हैं और लोग जलने लगते हैं। वो महिला हैं, यही ज्यादा तकलीफ का विषय है। कोई महिला धारा के खिलाफ बहने की कोशिश करे तो क्यों पेट में दर्द होने लगता है? लगता था कि दब जाएंगी, कलम के साथ सिर झुक जाएगा। हिंदुस्तान आईं तो सोचा कि एक धर्मनिरपेक्ष राज्य में शरण मिलेगी, शांति के साथ सम्मान मिलेगा। चैन से जी पाएंगी लेकिन तुष्टिकरण ने बेड़ा गर्क कर दिया। मुस्लिम नाराज न हो जाएं इसलिये कांग्रेस की सरकार ने उन्हें ज्यादा तवज्जो नहीं दी। छोटा सा सवाल है, क्या कट्टरपंथ में पाकिस्तान से थोड़ा पीछे बांग्लादेश में सिर्फ चर्चा में आने के लिए कुछ लिखने से पैसा मिल सकता है? तस्लीमा को पढ़ा है मैंने, प्रभावित हूं उनसे। तस्लीमा जो लिखती हैं सच्चाई के बेहद करीब होता है। हम हिंदू हों या मुस्लिम, क्या अंतर है हमारी मानसिकता में? पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बच्चों पर काम करने वाले एक संगठन की कार्यकर्ता ने मुझे बताया था कि बाल शोषण की घटनाओं में मुस्लिमों से हिंदू भी पीछे नहीं। परिवार के भीतर ही कुछ भी होता रहे, वहां न धर्म चलता है औऱ न जाति। तस्लीमा ने एक सीमा के बाहर शोषण पर औरत का विद्रोह लिखा। औऱत है तो क्या शोषण सहना नियति है, बिल्कुल नहीं औऱ न इस शोषण के विरुद्ध कलम या कूंची से आवाज उठाना गलत. नारीवाद से संबंधित विषयों पर अपनी प्रगतिशील विचारों के लिये चर्चित और विवादित रही तस्लीमा ने स्वाभिमान और अधिकारों के लिए संघर्ष करते हुए बहुत-कुछ खोया। अपना भरा-पूरा परिवार, दाम्पत्य, नौकरी सब-कुछ दांव पर लगा दिया। उसकी पराकाष्ठा थी देश निकाला। तस्लीमा बेशक मान्यताओं के खिलाफ काम करती रहीं और तीन निकाह हुए उनके मुस्लिमों के निकाह और तलाक में महिला की कितनी भूमिका होती है, सब जानते हैं। वो घर में बैठी और किसी पर निर्भर कोई आम महिला नहीं थीं बल्कि ढाका मेडिकल कॉलेज में डॉक्टर थीं। पैसा कमाना कोई बड़ी बात नहीं थी, पर वो इस तरह की महिला थीं जिसने दुनिया की परवाह किए बगैर चलने का दम दिखाया। ... और यह तो पराकाष्ठा है, एक अखबार चर्चा में आने के लिए मनगढंत लिख देता है और हम सिर्फ इसलिये कि तस्लीमा का नाम है, भिड़ जाते हैं। लाशें बिछाने लगते हैं। कब तक चलेगा यह? बस करिए, कला औऱ साहित्य को इससे बख्शिए। बोलना ही है तो बोलिए लेकिन सीमाओं में, स्वस्थ मानसिकता से।
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5 comments:
इन सब में मीडिया का बहुत बड़ा हाथ होता है , ये जिसे चाहे जो बना दें ।
bin ki bat ka btngd bnana dhrm ke nam pr fsadat krna yhi to un ka mool chritr hai
dr.ved vyathit
एक बार लिखा गया कि तस्लीमा ने अपने संबंधियों से कहा कि वो उनका शोषण करें ताकि उसे लिखकर उन्हें पैसा मिले।
Ye aapne kiske liye likha nahi hai pata nahiN. Vaise Taslima ki baabat meriaaj ki post par bhi ekaad pathak ne ye ilzaam lagaaya hai. Jo jawaab maine unheN diya hai vahi yahaN bhi rakh raha huN :
यह व्यंग्य है। जब कोई पुराना दोस्त हमें कई साल बाद मिलता है जो पहले बहुत पतला था अब बहुत मोटा हो गया है तो कटाक्ष मे हम कहते कि ‘क्या बात है यार दिन पे दिन सूखते जा रहे हो !?’ तब हमारा असली मतलब होता है कि क्या खाते हो जो इतना मुटियाते जा रहे हो। इसी तरह से पढ़ेंगे तो आपको इस व्यंग्य का असली अर्थ समझ में आएगा। अभी आप बिलकुल उल्टा अर्थ निकाल रहे हैं। अगर आप व्यंग्य विधा को जानने के बावजूद ऐसा कह रहे हैं तो आपकी बात को भड़काने की संज्ञा दी जा सकती है। ऐसा ही कई साल पहले राजेंद्र यादव के व्यंग्य भाषा में लिखे गए संपादकीय ‘होना/सोना एक ख़ूबसूरत दुश्मन के साथ’ के साथ किया गया था। पर मुझे लगता है कि आपकी नीयत वैसी नहीं है।
hairani hoti jab aaj ke padhe-likhe paathak bhi vyangya aur aam lekh meN farQ nahiN kar paate !!
सुर्खियों मे रहने के लिए ये ओछे हथकंडे हैं!
समाज के लिए घातक हैं!
मैं खुद भी तसलीमा के लेखन से बहुत प्रभावित नहीं हूँ ! उनका लेखन एक ख़ास किस्म की उत्तेजना उपन्न करता है -बस अब बहुत हो चुका!
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