Thursday, March 24, 2011

रेखाओं की दुनिया...

यह आड़ी-तिरछी, गोल-चौकोर यानि तरह-तरह की रेखाओं की बात है जो मिलकर आर्ट बनती हैं. शुरुआत में आर्टिस्ट इन्हीं रेखाओं को कला कहते रहे, फिर उनमें रंग भरा और कला की यह दुनिया रंगीन हो गई. रंग और रूप तभी आया जब रेखाओं से चित्र को आकार मिला. खास बात यह है कि जो आंखें कला की शान में कसीदे पढ़ने में तल्लीन होती हैं, उन्हें रेखाएं कभी-कभी दिखती तक नहीं. नवोदित से लेकर एक्सपर्ट आर्टिस्ट तक सब ज्यादातर इन्हीं रेखाओं के सहारे कला सृजन करते हैं. सच में लाइन्स यानि ड्राइंग का खेल है आर्ट का पूरा वर्ल्ड. यही स्केच वर्क सक्सेस का रास्ता भी है. मेरे लिए इस बार ड्राइंग की बात करना जरूरी है क्योंकि एक्जामिनेशन सीजन है. डेली प्रैक्टिस के बगैर कोई स्टूडेंट न तो यहां सक्सेस पाएगा और न ही, आर्ट फील्ड में स्टैब्लिश होगा. इसके साथ ही तमाम यूथ्स तैयारी में होंगे कि नया सेशन शुरू हो और हम भी आर्टिस्ट बनने की दौड़ में उतर जाएं. कला की फील्ड में आने वाले के लिए यह जरूरी है कि वह लाइन्स रचने में कमांड पाए हुआ हो. फिर कला के चाहने वालों के लिए भी यह जानना बेहद जरूरी है कि यह रची कैसे जाती है. आप करोड़ों की आर्ट खरीदकर ड्राइंग रूम में सजाएं पर जाने नहीं कि इससे पीछे कितनी मेहनत हुई है, क्या टेक्निक यूज हुई है और कलर्स कैसे इधर-उधर फैल नहीं रहे, तो आपको खुद भी शायद ही अच्छा लगे. कला की दुनिया में बिन लाइन्स सब सून. इंडिया हो या चाइना, लगभग सभी एशियन कंट्रीज की आर्ट में रेखांकन यानि ड्राइंग का इम्पॉर्टेंट रोल है. दरअसल, यही लाइन्स एशिया और यूरोप की आर्ट को डिफरेंशिएट कराती हैं. यूरोपियन आर्ट में कलर और हमारे यहां ड्राइंग को प्रॉयर्टी का रिवाज है. ट्रेन में ट्रेवल करते या किसी हिल स्टेशन पर लैंडस्केप पेंटिंग्स रचते वक्त आर्टिस्ट इसी ड्राइंग से अपनी कृति की शुरुआत करता है. लगातार चित्र बनाते-बनाते हुई ऊबन में कोई आर्टिस्ट अलग-अलग पेपर्स पर ड्राइंग शुरू कर देता है. आर्ट की दुनिया में कहा जाता है कि डेली रुटीन में ड्राइंग किए बिना ब्रश पर कमांड आ पाना पॉसिबिल ही नहीं. मकबूल फिदा हुसैन लाइन्स के मास्टर हैं. नन्दलाल बोस, बिनोद बिहारी मुखर्जी, राम किंकर बैज और न जाने कितने ओल्ड मास्टर हैं जो लाइन्स को अपनी आर्ट की पहचान बनाकर फेमस हो गए. आर्ट की फील्ड में नए-नए एक्पेरीमेंट हुए पर उन्होंने ड्राइंग नहीं छोड़ी. रविंद्र नाथ टेगोर ने भी खूब ड्राइंग कीं. उन्होंने तो जो एक्स्प्रेशन पेन और इंक की इन लाइन्स से दिखाए, वे प्रैक्टिस आर्ट न होकर पूर्ण कलाकृतियां कहलाने लगीं. लाइन्स के जरिए हम कलाकार बहुत-कुछ दिखा सकते हैं. कलर्स का चुनाव सही हो तो पेंटिंग कमाल की बनती है. कलाकारों की चलती-फिरती, सरपट दौड़ती, उमड़ती-घुमड़ती और रेंगती यही लाइन्स हैं जो पेंटिंग्स में भाव पैदा करती हैं. हम इन्हीं से इमोशंस दिखाते हैं और यही दुख-सुख, नेचर, नदी की लहरों के रूप में आनंद और बहुत-कुछ... कैनवस पर उभारने में कामयाबी दिलाती हैं. आर्ट मार्केट का मौजूदा ट्रेंड भी ड्राइंग की तरफ है. स्टूडेंट स्केच वर्क के जरिए अपना खर्च निकाल रहे हैं. शहरों में रिवर्स और मॉन्यूमेंट्स के स्केच बनाते इन यूथ्स की भीड़ दिनभर नजर आती है. आर्ट स्कूलों में उन्हें स्केच में एक्पर्ट बनाने की कवायद पर ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है. ड्राइंग आर्ट की वह रोड है जो हमेशा भीड़ से भरी रहती है. यह जरूरी है और इसमें मौके हैं. आसानी से सुलभ, आकर्षक होने के साथ ही ज्यादा महंगी न होने की वजह से यह आर्ट हर वर्ग की पसंद है यानि इस रोड पर चलना डबल फायदे की बात है.

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