जमाना लद गया जब वही पुरानी घिसी-पिटी कला को देखकर लोग शान में कसीदेगढ़ने लग जाते थे। कला की दुनिया में भी मंदी के जो दिन आए हैं उनसे एकसबक तो मिलने लगा है कि फ्रेश और प्रैक्टिकल आर्ट बायर्स की टॉपप्रायर्टी पर हैं। फिर कला की दुनिया में यह तो बहुत पुराना सिद्धांत हैकि नयापन लाइये या फिर घर बैठ जाइये वरना आपकी कला कोई खरीदना तो दूर,उसे देखना भी नहीं चाहेगा। सीधा सा मतलब है कि एक्सपेरिमेंट्स के बिनाकला अधूरी है और इसे कोई पसंद नहीं करेगा। मैंने कलाकार के रूप में अब तकजो देखा, उसका भी यही निष्कर्ष है। उन दिनों में जब मैं एक नए आर्टिस्टके रूप में दिल्ली की आर्ट गैलरीज़ के चक्कर लगाती थी और तब भी, जब मैंनेअपनी एक्ज़ीबिशन ऑर्गनाइज करना शुरू कर दिया था। आर्ट के फेमस स्पॉटबनारस आकर भी यही देखा। अपनी स्टूडेंट लाइफ में जिन कलाकारों को देखकर उनजैसा बनना चाहती थी, उनमें से कई कला में बासीपन के चलते समय से पहले हीचुक से गए और आज महज खानापूरी कर अपना मन बहला रहे हैं।पुराना ढर्रा अब बेशक कुछ स्टूडेंट्स के लिए उबाऊ है। वह वो रच रहे हैंजो नया है, बिकाऊ है और लोग उसे देखना भी चाहते हैं। एक वेबसाइट केआनलाइन कंप्टीशन में मुझसे जुड़े एक स्टूडेंट ने अखबारों में ही छपेफोटोज़ से इंस्पीरेशन लेकर अफगानिस्तान के हालात पर अपनी रचना भेजी।अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का माहौल चाहे कहीं कट्टरपंथ दर्शाता हो,लेकिन वहां के स्टूडेंट्स भी नया रच रहे हैं। पहले के स्टूडेंट जहां वहांकी यूनिवर्सिटी की बिल्डिंग्स, मार्केट्स और बहुत हुआ तो करीब 80किलोमीटर दूर आगरा के मॉन्यूमेंट्स, नाले में बदल चुकी यमुना नदी कालैंडस्केप बनाकर ही खुद को कलाकार मानते और फिर नाकामी झेलते थे, पर अबअलग रच रहे हैं। वह मुस्लिम घरों को अपना सब्जेक्ट बना रहे हैं, तोबुर्के के पीछे की मुस्लिम लड़कियां उनकी फेवरेट फिगर हैं। इन लड़कियोंका शॉपिंग करना दिखाया जा रहा है तो मॉर्डर्न लुक देने के लिए पेंटिंग्समें वो लड़कों से बतियाती भी नजर आती हैं। अन्य यूनिवर्सिटीज़ औरकॉलेजेज़ के टीचर्स-स्टूडेंट्स जो बता रहे हैं, उसके मुताबिक बदलाव की यहहवा लगभग हर शहर में महसूस की जा रही है। लड़के-लड़कियां अब किसी की कॉपी
नहीं करने की जैसे ठाने हुए हैं। हालांकि यह असर सिर्फ उनके अपने याटीचर्स के अनुभवों का नहीं बल्कि इंटरनेट की दुनिया से मिल रहीजानकारियों का भी है।यह स्टूडेंट्स लाइब्रेरीज़ में जाकर किताबों में पिकासो, वेनगफ,रेम्ब्रांट, हेनरी माटिस, पॉल गॉगिन जैसे विदेशी कलाकारों की रचनाएंदेखते हैं लेकिन उन्हें कॉपी करने से बचते हैं। कंफ्यूज हो जाएं तोएक्सपेरिमेंट शुरू कर देते हैं। कलर्स को अपने ढंग से एप्लाई करकेपेंटिंग्स में नयापन लाते हैं। राजा रवि वर्मा की आर्ट उनके लिए सराहनीयतो है लेकिन फॉलो करने लायक नहीं। वो अलग-अलग कलर्स, क्वालिटी औरटेक्चर्स के पेपर व कैनवस पर मिक्स मीडिया में नए एक्सपेरिमेंटल वर्क कोप्रॉयर्टी देते हैं। कभी स्प्रे तो कभी रोलर्स से टेक्चर एप्लाई करनाउन्हें बेहतर लगता है। नए प्रयोग करने में ज्यादा समय तो लगता है लेकिनयह उनके लिए सैटिस्फैक्टरी होता है। बायर्स भी इस तरह के वर्क पसंद कररहे हैं क्योंकि नयापन ही ज्यादा बिक रहा है। नई हवा अच्छे संकेत दे रहीहै और नए कलाकार भी जैसे उसका पूरा लाभ उठाने में कसर बाकी नहीं छोड़नाचाह रहे। सबसे खास बात यह है कि नएपन को प्रॉयर्टी दे रही नई पीढ़ी कामकी थकान से बचने का उपाय और कामयाबी का शॉर्टकट नहीं तलाश रही।
नहीं करने की जैसे ठाने हुए हैं। हालांकि यह असर सिर्फ उनके अपने याटीचर्स के अनुभवों का नहीं बल्कि इंटरनेट की दुनिया से मिल रहीजानकारियों का भी है।यह स्टूडेंट्स लाइब्रेरीज़ में जाकर किताबों में पिकासो, वेनगफ,रेम्ब्रांट, हेनरी माटिस, पॉल गॉगिन जैसे विदेशी कलाकारों की रचनाएंदेखते हैं लेकिन उन्हें कॉपी करने से बचते हैं। कंफ्यूज हो जाएं तोएक्सपेरिमेंट शुरू कर देते हैं। कलर्स को अपने ढंग से एप्लाई करकेपेंटिंग्स में नयापन लाते हैं। राजा रवि वर्मा की आर्ट उनके लिए सराहनीयतो है लेकिन फॉलो करने लायक नहीं। वो अलग-अलग कलर्स, क्वालिटी औरटेक्चर्स के पेपर व कैनवस पर मिक्स मीडिया में नए एक्सपेरिमेंटल वर्क कोप्रॉयर्टी देते हैं। कभी स्प्रे तो कभी रोलर्स से टेक्चर एप्लाई करनाउन्हें बेहतर लगता है। नए प्रयोग करने में ज्यादा समय तो लगता है लेकिनयह उनके लिए सैटिस्फैक्टरी होता है। बायर्स भी इस तरह के वर्क पसंद कररहे हैं क्योंकि नयापन ही ज्यादा बिक रहा है। नई हवा अच्छे संकेत दे रहीहै और नए कलाकार भी जैसे उसका पूरा लाभ उठाने में कसर बाकी नहीं छोड़नाचाह रहे। सबसे खास बात यह है कि नएपन को प्रॉयर्टी दे रही नई पीढ़ी कामकी थकान से बचने का उपाय और कामयाबी का शॉर्टकट नहीं तलाश रही।
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4 comments:
कई मुआमलों में आपने सही बिंदु उठाए हैं।
पर कला को बिकने की कसौटी से तौलने वाले नज़रिए से परखा जाना अपने-आप में एक विकृत नज़रिया लगता है।
जाहिर है दुनिया लगातार बदल रही है, तो इसकी यथास्थिति के परावर्तन को अभिशप्त कला में भी समयानुकूल परिवर्तन होंगे ही।
कला अपनी सार्थकता खोज ही लेती है।
अब बिकने की योग्यता रखने वाले व्यवसायिक नज़रिए से किए जाने वाले उत्पादन को, कला की शास्त्रीय समझ में कहां रखा जा सकता है, यह अलग से विचारणीय बात तो है।
हाल के दौर में कला का क्षेत्र, अमीर अभिजात्य सनकों के चलते काफ़ी मुनाफ़े के बाज़ार में तब्दील हो रहा है, बाकायदा माफ़िया स्थापित हो रहा है। बिकने वाले मामले मे भी अधिकतर चीज़े वही तय कर रहा है।
आप इससे जुडी हैं, आप ज़्यादा जानती हैं।
kya karen ab jamana bhag chala hai 'some thing different' ke peechhe aur jo bache hain unhe bhi naya chahiye........
kala ya to kranti hoti hai ya nakal. main nahi kahata Paul Goga ne kaha tha, baat mujhe bhi achchhi lagi. Viaral ke mausam men apane likha bhi to jaldbaaji men?
kala ya to kranti hoti hai ya nakal. main nahi kahata Paul Goga ne kaha tha, baat mujhe bhi achchhi lagi. Viaral ke mausam men apane likha bhi to jaldbaaji men?
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