Tuesday, February 16, 2010

रेत के चितेरे

सिकुड़ती नदियों का यह एक यूज है. पुराने और स्टैब्लिस्ड आर्टिस्ट ही नहीं, अब नए लोग भी इस तरह मुड़ रहे हैं. और तो और... शहरों में वह नई जनरेशन जो नित नया करना चाहती है. वह भी आ रही है और खूब एंजॉय करती है. बात हो रही है सैंड आर्ट यानि रेत पर कला की. नदी किनारों की रेत पर कला का ट्रेंड बहुत पुराना है लेकिन चर्चित नए जमाने में खूब हुआ है. मौसम है इस कला का, आजकल कई आयोजन किए जा रहे हैं. सर्दियां और उसके बाद की गुनगुनी धूप का मौसम होता है इस आर्ट का और आम तौर पर होली तक जमकर चलता है.
सुदर्शन पटनायक को कौन नहीं जानता, रेत पर आकर्षक कलाकृतियां बनाकर वह आज देश के सर्वाधिक फेमस कलाकारों में से एक बन गए. आलोचकों के मुताबिक बेशक, उन्होंने हर मौके को भुनाया. राष्ट्रीय पर्व हों या कोई भी मौका, वह कला रचते रहे और चर्चित हो गए. भारत में भी सैंड आर्ट पहले से ही प्रचलित थी लेकिन पहचान दिलाने वालों में वह सबसे आगे हैं. तमाम छोटे-बड़े कलाकार उनके रास्ते पर चल निकले और कला की यह विधा प्रोफिट में रही. कोलकाता, मुंबई या पटनायक की वजह से फेमस हुए समुद्र के एक अन्य शहर पुरी और इस तरह के अन्य शहरों की बात छोड़ भी दें तो नदियों वाले छोटे-बड़े शहरों में भी यह कला जमकर चल रही है. लोगों को अपना मुरीद बना रही है और खूब एंजॉयमेंट करा रही है. नई जनरेशऩ में इस आर्ट की इतनी पैंठ बन चुकी है कि उड़ीसा में सैंड आर्ट सिखाने के लिए इंस्टीट्यूट बना और देखते ही देखते स्टूडेंट्स की संख्या दो से 35 हो गई. इंस्टीट्यूट के पास संसाधनों की थोड़ी कमी है वरना यह संख्या बढ़कर न जाने कितनी हो गई होती. इंस्टीट्यूट हर साल दिसंबर में एनुअल एक्जीबिशन आर्गनाइज करता है तो देशभर के कला मुरीद और कलाकार जुटते हैं. इसी की देखा-देखी कई अन्य संस्थान भी खुले और स्टूडेंट्स की भीड़ वहां सैंड आर्ट सीख रही है. पुराने इंस्टीट्यूट्स भी अपने स्टूडेंट्स को यह विधा सिखा रहे हैं. नदियों के किनारे जब कोई ईवेंट आर्गनाइज होता है तो पार्टिसिपेंट्स की संख्या अच्छी-खासी होती है. पिछले दिनों हुए एक इवेंट में मैं भी गई थी. अजब नजारा था वहां, मंजे हुए हाथों के साथ ही वह लोग भी कला सृजन में जुटे थे जिनका कला से पहले कोई वास्ता नहीं रहा. गांव-देहात या शहरों के गली-मोहल्लों के यह लोग रेत से कुछ बनाते. अच्छा लगता तो ठीक वरना बिगाड़कर कुछ और बनाने लग जाते. कुछ के लिए यह मनोरंजन था तो कुछ के लिए कला निखारने का मौका. हाल यह था कि दर्शक भी हाथ आजमाने में लगे थे. गंगा का पूरा किनारा पिकनिक स्पॉट सा था. आलू-पूड़ी और चाट-पकौड़ी के साथ लोग गुनगुनी धूप में कला का आनंद ले रहे थे. पिछले साल भी हुआ था यह आयोजन, तब आठ-दस स्टूडेंट्स के एक ग्रुप ने नदी में बह रही बच्चे की डेडबॉडी को ही अपने कम्पोजीशन का एक पार्ट बना लिया और अवार्ड जीता. बरसों पहले लखनऊ में गोमती किनारे ऐसे एक आयोजन को खूब चर्चा मिली थी.
बनारस, इलाहाबाद, आगरा जैसे न जाने कितने शहर हैं जो इस कला से समय-समय पर रूबरू होते हैं. आम तौर पर चर्चा से दूर रहने वाले मुरादाबाद में दो साल पहले रामगंगा नदी के किनारे एक ईवेंट हुआ. गाजीपुर जैसे छोटे शहर ने भी अभी इस तरह के ईवेंट की मेजबानी की है. यह जानते हुए भी कि जब वह रेत से हटेंगे तो यह कुछ समय में यह कृतियां भी खत्म हो जाएंगी, लोग उत्साहित रहते हैं. विदेशों में बॉटल्स और जार में बनी रेत की कृतियां ज्यादा पसंद की जाती हैं. खास बात यह है कि समुद्र या नदी न होने के बावजूद कुछ देशों में इस तरह की रेत कृतियों का मार्केट है. रंग-बिरंगी रेत की इन कृतियों की आनलाइन ट्रेडिंग भी होती है. वहां सैंड एनीमेशन भी प्रचलित और चर्चित है. पेंटिंग फील्ड की होने के बावजूद मैं इस आर्ट की फैन हूं. मैं क्या, बचपन में रेत से घरौंदा बनाने वाले तमाम बच्चे जब बड़े होते हैं तो इस कला पर रीझ जाते हैं. आर्ट की तमाम अन्य स्टाइल्स की तुलना में खुद के यह सबसे ज्यादा करीब नजर आती है. सी बीच और नदियों के आसपास रेत पर धमाल मचाते बच्चे इस कला का वर्तमान और भविष्य हैं. नई पीढ़ी के लिए इस फील्ड में स्कोप है. कलाकारों के लिए बेहतर संभावनाएं और आम लोग तो इससे मनोरंजन करेंगे ही. कहा जाता है जो आम लोगों से जुड़े वही कला. स्कल्पचर का एक रूप सैंड आर्ट इसका बेहतर एक्जाम्पल है.

मेरा यह लेख यहां भी देखें-

8 comments:

Yashwant Mehta "Yash" said...

पटनायक की कला का जादू अखबार के माध्यम से ही देख पाये है अभी तक
कला के इस रुप को प्रोत्साहन मिलना चाहिए
अगर इस कला के द्वारा नदी बचाओ अभियान चलाया जाये व जागरुकता फ़ैलाई जाये तो क्या कहने

Alpana Verma said...

सैंड आर्ट ..abhi bhi poori tarah se viksit nahin kah sakte hain.sambhavnayen aur bhi hain.lekin bahut manoram lagati hain ye Sand art.
सिकुड़ती नदियों का यह एक यूज है'--something different!

Arvind Mishra said...

'बचपन में रेत से घरौंदा बनाने वाले तमाम बच्चे जब बड़े होते हैं तो इस कला पर रीझ जाते हैं.'
मैं ऐसा ही कुछ सोच रहा था तब तक यह पंक्ति ही पढने को मिल गयी .
वाकई -रेत के अनेक बिम्ब साहित्य में मिलते हैं -जीवन की क्षणभंगुरता से लेकर प्रेम के संशयों ,और आनन्दानुभूति की अत्यल्पता -रेत से बिम्बित हुयी है -
नेह निर्झर बह गया है -रेत सा तन रह गया है .
चांदनी में लिखे जाने वाले रेत पर प्रिय के नाम और लहरों द्वारा उनका काम तमाम
कितने ही बिम्ब -इस रेत से कला प्रेमी खेलना चाहता है -उसे फील करना चाहता है
तरह तरह के आकारों को वह यहाँ बनाता मिटाता है -बाल सुलभता से लेकर यौवन तक सभी कुछ तो बिखरा है रेत में
आईये एक मुट्ठी रेत मुठी में भर तो लें -बहुत सुन्दर आलेख इस मौलिक विषय पर .....

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

NICE.

Udan Tashtari said...

सैंड आर्ट भी अपने आप में अद्भुत है. कुछ तस्वीरें और दें..

रोहित said...

'SAND ART' ke baare me aapke dwara di gayi jaankaari bahut acchi lagi.

Urmi said...

बहुत बढ़िया पोस्ट! सैंड आर्ट के बारे में अच्छी जानकारी प्राप्त हुई आपके पोस्ट के दौरान ! पटनायक जी के सैंड आर्ट के क्या कहने! लाजवाब !

Vivek kumar said...

ye sawrg jaisa lagta hai...