Tuesday, September 28, 2010

आइये बनाएं मेरा भारत महान

एक बार फिर चुनौती सामने खड़ी है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले से श्रीराम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद का विवाद डरा रहा है। सत्ता हो या आम जन, हर जगह खौफ है कि कहीं सांप्रदायिक सदभाव छिन्न-भिन्न न हो जाए। बाबरी मस्जिद को ढहे दो दशक से ज्यादा समय हुआ। विभिन्न धर्म और जातियों के संगम वाले इस देश की पावन गंगा-यमुना नदियों में न जाने कितना पानी बह गया। जो उस समय बच्चे थे, वो बड़े हो गए, जवान थे, वो बूढ़े और कट्टरता की मिसाल माने जाने वाले कितने बूढ़े जमाने से विदा हो गए। उस समय जो दंगे हुए, उससे तमाम लोगों को सबक मिला। दोनों धर्मों के ज्यादातर लोगों ने मान लिया कि दंगा हुआ तो शिकार हम बनेंगे और रोटियां सियासत के खिलाड़ियों की सिकेंगी। भीषण दंगों ने जो सबक दिया जिसका नतीजा हुआ कि आगरा, बनारस और अलीगढ़ जैसे घोर सांप्रदायिक करार शहर शांत हो गए। कहीं दंगे हुए तो भी छिटपुट। मजहबों की जंग शांत करने के लिए हर जगह दोनों तरफ के लोग साथ आ गए। बनारस का मदनपुरा, अलीगढ़ की सिविल लाइंस या फिर आगरे का मंटोला, सभी ने सबक लिया। पिछले दिनों लखनऊ गई तो हाईकोर्ट के फैसले के मद्देनजर ऐशबाग जाने वाला एक रास्ता रोक रखा था पुलिस ने। वहां दंगा नहीं होता, कभी कटुता होती है तो बात न बिगड़ जाए इसलिये पुलिस की सतर्कता थी यह। और तो और... खबरें हैं कि फैजाबाद और यहां तक कि अयोध्या में भी दोनों वर्गों के लोग शांति चाहते हैं। यह होना भी चाहिये। देश में कॉमनवेल्थ गेम्स शुरू होने वाले हैं, जरा हालात बिगड़े तो क्या होगा, कल्पना करना मुश्किल नहीं। दुर्भाग्य से संवेदनशील शहरों की श्रेणी में शुमार मुरादाबाद, बिजनौर जैसे शहर बाढ़ की तबाही झेल रहे हैं। आगरा-मथुरा में कालिंदी क्रूर है और आसपास के इलाके उसके पानी से लबालब चल रहे हैं। जहां बाढ़ उतार पर है, वहां भी असर कई दिन तक चलेगा। बाढ़ के बाद बीमारियां पैर पसारेंगी, तब कुछ गलत हुआ तो क्या होगा?
हम मिलजुल कर रहते आए हैं। तमाम मिसालें हैं जब संकट की घड़ी में हम हिंदू या मुस्लिम नहीं देखते और मानवता की कहानियां रच देते हैं। बाबर को ही हम क्यों याद करते हैं, जबकि तमाम मुस्लिम शासकों और हिंदू राजाओं ने दूसरे धर्मों का सम्मान करने की मिसालें खड़ी की हैं। हम बनारस में ज्ञानवापी-काशी विश्वनाथ मंदिर और मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि-ईदगाह की तरफ देखते हैं लेकिन उन शहरों को क्यों भूल जाते हैं जहां मंदिर में घंटियां एवं मस्जिद की अजान साथ-साथ सुनाई देती हैं। कहीं तो कहीं तो आपसी तालमेल इतना है कि दोनों धर्मों के लोगों ने समझदारी से पूजा और नमाज के लिए अलग-अलग समय तय कर रखा है। राजस्थान में अजमेर शरीफ, गुजरात में अहमदाबाद की करीबी इमामुद्दीन साहब की दरगाह और मुंबई में हाजी अली की दरगाह पर जितने मुस्लिम आते हैं, हिंदुओं की संख्या भी उससे कम नहीं होती होगी। केरल में सबरीमाला तीर्थ जाने वाले श्रद्धालुओं में बड़ी तादात वावार मस्जिद के सामने शीश झुकाती है। मान्यता है कि मस्जिद गए बिना अयप्पा मंदिर की यात्रा का पुण्य अधूरा है। अशांत कश्मीर में हिंदुओं की हालत चाहें कितनी ही खराब हो लेकिन वहीं पुलवामा जिले के एक गांव में एक मंदिर ऐसा है जहां हिंदुओं का हवन चलता है और दूसरे हिस्से में मुसलमान भाई नमाज अदा करते हैं। घाटी से पलायन कर चुके कश्मीरी पंडितों में तमाम ऐसे हैं जो हजरत सैय्यद अकबरूद्दीन के सालाना उर्स में हाजिरी लगाने पहुंचते हैं। फिर हम क्यों भयभीत हैं। मनोविज्ञान के एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि दंगा करने वाले लोगों में बड़ी संख्या उन लोगों की भी होती है जो भयग्रस्त या हीनभावना के शिकार होते हैं। यह लोग सिर्फ इसलिये उग्र हो जाते हैं कि कहीं दूसरा पक्ष उन्हें लील न ले। यह लोग यदि चेत जाएं और प्रशासन उनमें छाया भय दूर कर दे तो चंद सिरफिरों को हम अपनी शांति को आग लगाने की इजाजत देने से बचेंगे। हम हिंदू-मुस्लिम बाद में हैं, भारतीय पहले हैं। जरूरत है कि फैसले को आसानी से स्वीकार करें। कितनी मुश्किल से गढ़ी है हमने देश की यह साझा संस्कृति इसे बचाने की जिम्मेदारी भी हमारी है। हम जानते हैं कि कोई भी चीज बनती मुश्किल से है पर नष्ट आसानी से हो जाती है। मौका है अपने देश को महान बनाने का, फिर कहेंगे मेरा भारत महान। इसी क्रम में इकबाल का शेर अर्ज़ है-
वतन की फिक्र कर नादां मुसीबत आने वाली है, तेरी बरबादियों के मश्वरे हैं आसमानों में।
ना समझोगे तो मिटजाओगे ऐ हिंदुस्तां वालों, तुम्हारी दास्तां तक न होगी दास्तानों में।।

17 comments:

श्यामल सुमन said...

निर्णय जो भी कोर्ट का मिल सब करें प्रणाम।
खुदा तभी मिल पायेंगे और मिलेंगे राम।।

मंदिर-मस्जिद नाम पर कितने हुए अधर्म।
लोग समझ क्यों न सके असल धर्म का मर्म।।

हुआ अयोध्या नाम पर धन-जन का नुकसान।
रोटी पहले या खुदा सोचें बन इन्सान।।

कम लोगों को राज है अधिक यहाँ पर रंक।
यही व्यवस्था चल रही फैल रहा आतंक।।

रंग सियासी यूँ चढ़ा डोल रही सरकार।।
लग जाते उद्योग तो मिलते कुछ रोजगार।।

असली मुद्दा खो गया बुरा देश का हाल।
आज मीडिया सनसनी बाँटे करे कमाल।।

मानवता ही धर्म है और धर्म है दूर।
भारत है हर सुमन का भाई सब मंजूर।।

सादर
श्यामल सुमन
www.manoramsuman.blogspot.com

Unknown said...

सत्य कहा आपने। हिंसा के जरिए किसी भी विवाद का हल नहीं हो सकता लेकिन हानि जरूर हो सकती है। ईश्वर न करे कि इस बार किसी की जान जाए। आप सार्थक और ज्वलंत मुद्दों पर जागृत करती हैं।

Arvind Mishra said...

अगर कल यह फैसला हो की उस जमीन पर मालिकाना हक़ मस्जिद वालों का है तब क्या अनुभूति होगी आपकी उत्तमा जी ?

सुप्रिया शर्मा said...

सहमति। ईश्वर सांप्रदायिक तत्वों को मौका न दें इस बार।

Vinny said...

न जाने क्यों हम सब कुछ जानने के बाद भी अनजान बन जाते हैं? क्यों पिछली बार की गलतियां भूल जाते हैं? क्यों कुछ लोगों के स्वार्थ हित में खेल जाते हैं? अयोध्या में दोनों धर्मों का एक स्मारक बन जाए और हल हो यह समस्या। हाईकोर्ट जिसकी भी भूमि बनाए, वह खुद को बड़ा साबित करते हुए दूसरे धर्म को भी आमंत्रित करे। काश!!!

Subhash Rai said...

उत्तमा, तुम्हारी चिंता बहुतेरे भारतीयों की चिंता है. फैसला जो भी हो, कुछ लोग उसका नजायज फायदा उठाने की कोशिश तो करेंगे, पर आम जनता ऐसे चेहरों को पहचानने लगी है, अगर उसने साथ नहीं दिया तो उपद्रवियों के मंसूबे कामयाब नहीं होंगे. फिर यह फैसना भी कोई अंतिम फैसला तो नही है, इसे लेकर बवाल मचाने वालों से सख्ती से निबटा जाना चाहिये.

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

लोग तो समझ ही रहे हैं, पर अगर राजनेता उनकी यह समझ बने रहने दें, तब न!

M VERMA said...

मन्दिर और मस्जिद की सियासी गणित किस आदमी (आम) के लिये है पता नहीं

अतुल राय said...

उत्तमा जी यकीन रखिए, इत्मिनान रखिए ।
1992 और 2010 में 18 साल का फर्क है और इन 18 सालों में देश ने सबसे ज्यादा बदलाव देखे हैं।
सबसे अहम बदलाव आज दिखेगा जब फैसले के बाद की शांति ये एहसास भी नहीं दिला पाएगी, कि ये उसी मसले पर फैसला है जिसके लिए देश ने 1992 देखा था।

तिलक राज कपूर said...

आपका आलेख और उसपर श्‍यामल जी के शानदार जानदार दोहे।
इामानदारी की बात तो यह है कि आम आदमी को इस तमाशे से कोई सरोकार नहीं। वस्‍तुत: यह प्रश्‍न आम आदमी का न होकर उनका है जो आम आदमी की भावनाओं से खिलवाड़ में ही अपने जीवन को सार्थक पाते हैं।

vedvyathit said...

sharmavedschchai se munh nhi modna chahiye achchha vivhar hai pr muslman jo dhrm ko hi sb se upr mante hain unhe ap smjhane ka kam kren doosra kangres v mulaym ji no abhi bhi shanti achchhi nhi lg rhi un ke virood bhi kuchh khen hindoo kbhi aakrmk nhi hai n hi ho pr jb sb trf se us mhan shanti smrthk snskriti ko nsht krnr ka pryas kiya ja rha hai to aap ke pas is ka kya upay hai

Arvind Mishra said...

बधाई !

दिगम्बर नासवा said...

आपकी चिंता वाजिब है ... पर इतिहास के मसले, दिलों की चुभन जाते जाते ही जाती है ....
सभी को दिल बड़ा करना पड़ेगा ... मुश्किल है पर मानना पढ़ेगा .... आगे की सुध लेनी पड़ेगी ......

राजेश उत्‍साही said...

उत्‍तमा जी,
मुझे पक्‍का यकीन है कि आप आज खुश होंगी। आपकी चिंता जायज थी।
पर देखिए हम सबने बहुत संयम से काम लिया है और सब कुछ शांति के साथ चल रहा है। अयोध्‍या फैसला भी आ गया है। भले ही कुछ लोग खुश न हों,पर आम जन तो खुश है।

जितेन्द्र ‘जौहर’ Jitendra Jauhar said...

उतमा जी,
आपने कितनी ’उत्तम’ और सारगर्भित बातें कही हैं! हम सभी भारतीयों को देशहित में सोचना चाहिए, अपनी साझा-संस्कृति को अक्षत्‌-अनाहत्‌ बनाए रखने की हर संभव कोशिश करनी चाहिए।

मेरे कुछ दोहे आपके विचार-क्रम में प्रस्तुत हैं :

न ’वो’मस्जिद का हुआ,न ’ये’मंदिर-भक्त।
दोनों को बस चाहिए, इक-दूजे का रक्त॥

दंगों में जलते नहीं, सिर्फ़ दुकान-मकान।
इन दोनों के दरम्याँ जलता हिन्दुस्तान॥

मिली समूचे शहर को, दंगों की सौग़ात।
ख़ूँ से लथपथ दिन मिले, आँसू भीगी रात॥

चप्पे-चप्पे पर पुलिस, हथियारों से लैस।
सन्नाटा लिखने लगी, पल में आँसू गैस॥
-जितेन्द्र ’जौहर’
(सोनभद्र,उप्र)
मोबा. नं. +91 9450320472

arun dev said...

bdhiyan likha hai aapne.

vijay kumar sappatti said...

aapne bahut acchi post daali hai

badhayi sweekar kare.