यह जनजातियां देश के हर राज्य में मौजूद हैं लेकिन संख्या में ज्यादा नहीं। अकेले उत्तर प्रदेश की बात करें तो 1991 की जनगणना के अनुसार इनकी संख्या मात्र दो लाख 87 हजार 901 थी। 2001 में हुई जनगणना में राज्य की कुल जनसंख्या 16 करोड़ 60 लाख 52 हजार के आसपास मापी गई तब जनजातियों की संख्या में मामूली वृद्धि हुई थी। यह वृद्धि अन्य जातियों की वृद्धि की तुलना में बेहद कम थी। इसी राज्य के बाराबंकी जिले का उदाहरण लें तो पता चलेगा कि जिले में अन्य जातियों के मुकाबले यह महज 0.2 प्रतिशत थीं। संख्या में बढ़ोत्तरी की दर कम होने का अर्थ यह माना गया कि यह जनजातियां अब अपनी पहचान छिपाना ज्यादा पसंद करती हैं और साथ ही अपने परिवार के बच्चों के रिश्ते अन्य जातियों में करने को प्राथमिकता दे रही हैं। लेकिन जनजातियां जहां भी अधिक संख्या में रहती मिलती हैं, वहां लोककलाएं ढूंढने के लिए ज्यादा प्रयास नहीं करना पड़ता। इनके घर-घर में कलाएं हैं। घर में प्रवेश करते ही कला से जो साक्षात्कार शुरू होता है, वह जीवन-यापन का माध्यम जानने तक चलता रहता है। सरकारी योजनाओं का लाभ मिला है इन्हें लेकिन उतना नहीं, जितना जरूरी है। फिर भी उपलब्ध संसाधनों के जरिए ही यह अपनी कलाओं के संरक्षण में जुटी हैं। सरकारी सेवाओं में आरक्षण का प्रावधान होने के बावजूद यह जातियां उसका लाभ नहीं उठा पातीं क्योंकि शिक्षा का अभाव है। जनजातियों के बच्चे निर्धनता के चलते शुरू में ही स्कूल जाना बंद कर देते हैं। वजह यह है कि उन्हें अपने साथ ही परिवार का पेट पालना होता है। पहले यह जनजातियां सामाजिक रूप से उपेक्षा की शिकार थीं लेकिन कलाओं ने उन्हें अन्य जातियों से मिलने-जुलने का अवसर प्रदान किया। इसके बाद स्थितियां बदलने लगी हैं। अपनी कलात्मक पहचान की वजह से जनजातियों की सामाजिक समारोहों में भागीदारी होने लगी है। विवाह हो या संतान प्राप्ति के बाद अन्य कोई अनुष्ठान जैसा हर्ष का कोई मौका, हर जनजातियां समारोहों में सक्रिय भागीदारी करती हैं। मध्य उत्तर प्रदेश के जिलों में विशेष रूप से मैंने पाया कि समय का बदलाव पहचानते हुए कलाओं की अन्य और बिकाऊ शैलियां इन जनजातियों ने विकसित कर ली हैं हालांकि परंपरागत कलाएं भी त्यागी नहीं हैं। वह गांवों में ही सीमित नहीं रहे बल्कि शहरों में जाकर भी अपने उत्पाद बेच रहे हैं। कानपुर देहात के एक गांव में रहने वाले जौनसारी जनजाति के रामखिलावन के अनुसार, समाज में अनुसूचित वर्ग की जातियां तो हमें लगभग पूरी तरह स्वीकार करने लगी हैं। कई बार तो उच्च जातियां भी नहीं हिचकतीं। हमें सामाजिक समारोहों में विभिन्न कार्यों से बुलाया जाता है। भोजन आदि कराया जाता है, काम के बदले में धन भी मिलता है। सामाजिक ढांचे में उनकी स्वीकार्यता की बात यहीं खत्म नहीं होती। कई गांवों में उनके लड़के-लड़कियों का विवाह अन्य जातियों में भी हुआ है। यहां भी माध्यम बनी है कला। एक वैवाहिक रिश्ते का आधार महज इसलिये बन गया कि लड़की के पिता जो रस्सी बनाते थे, लड़का अपनी दुकान पर बेचा करता था। बाद में यह रिश्ता और मजबूत बन गया। उत्पादन और बिक्री बढ़ने से दोनों परिवार और समृद्ध हो गए। इस तरह की सफल कहानियां कई हैं जो अच्छे संकेत दे रही हैं कला संरक्षण के भविष्य का।
यहां भी देखिए मेरा यह आर्टिकल-
http://vichar.bhadas4media.com/tera-mera-kona/799-2010-11-24-03-18-22.html
4 comments:
बहुत बढ़िया आलेख है| कला किसी जगह या स्तर की मोहताज नहीं है वो तो कही भी पनप सकती है|
अपसे सहम्त हूँ। भारत मे प्रतिभा की कमी नही बस उसे आँकने के लिये उचित मंच नही मिलता\ शुभकामनायें।
अच्छी पोस्ट लगी, ज़रुरी सूचनाओं के साथ। आपकी नयी तस्वीर बेहतर और ग्रेसफुल है। आपके संघर्ष की कहानी भी पूरी पढ़ी। फिरसे लगा कि दुनिया में एक सिर्फ़ ग़रीब से अमीर बनने का संघर्ष ही नहीं होता। अभी कई तरह के संघर्ष हैं, कई तरह की सफ़लताएं हैं, उन्हें पाने/उनसे जूझने के अपने-अपने तरीके हैं। और इनमें से बहुत कुछ अभी दुनिया के सामने आना बाक़ी है। बहुत शुभकामनाएं।
बहुत अच्छी जानकारी देती पोस्ट ..
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