Tuesday, November 23, 2010

इन गलियों में भी बसती है कला...

यह गलियां जनजातियों की बसावट वाली है। गंदी और सामान्य जन सुविधाओं के अभाव से त्रस्त इन गलियों की कला अलग पहचान है। कला और इन जनजातियों के बीच सनातन सम्बन्ध है। पुरातन कला की जब भी बात होती है तो जनजातियों का जिक्र जरूर आता है। और तो और... भारत की सांस्कृतिक धरोहरों का उल्लेख हो और जनजातियों की भूमिका न देखी जाए, यह भी संभव नहीं। अंधाधुंध आधुनिकीकरण के दौर में आज भी इन जनजातियों की कला जीवित है। समृद्ध भारतीय संस्कृति में इन जनजातियों की बड़ी भूमिका है। मैंने जनजातियों की कलात्मक पहचान पर एक शोध किया है। करीब ढाई साल की अवधि में हुए इस शोध के दौरान मैंने उन तमाम शहरों का दौरा किया जहां जनजातियां रहती हैं और जीवन-यापन के लिए ही सही, कला सृजन में जुटी हैं। इन जनजातियों के रहन-सहन देखकर प्रतीत होता है कि भारत कला के मामले में उससे ज्यादा समृद्ध है जितना नजर आता है। इन जनजातियों की रग-रग में कला है। त्यौहारों और सामाजिक समारोहों में यह जो कला रचते हैं, वह भारत की पुरातन कलाओं में से एक है। शहर जब इतने विकसित नहीं हुए थे, तब उसमें में भी यह कलाएं दिखती थीं। घरों में महिलाएं गोबर से लीपती थीं, दरवाजे और दीवारों पर घर में ही रामरज और हल्दी जैसी आसानी से मिल जाने वालीं वस्तुओं से विभिन्न आकृतियां उभारती थीं। समय बदला और इन आकृतियों की जगह कैलेंडरों और अन्य प्रकाशित चित्रों ने ले ली। परंतु जनजातियों ने यह सब नहीं छोड़ा। महंगाई की मार से यह भी बेहाल हैं लेकिन कलाएं अब भी रचती हैं। बेशक, कहीं-कहीं गरीबी की वजह से हल्दी जैसी वस्तुओं की जगह सस्ते पीले रंग और यहां तक कि चिकनी मिट्टी तक ने ली है। पहले यह लोग सुतली के मंथकर किसी महिला की गुंथी चोटी की तरह बनी बेलों से अपनी बनाई डलियों को सजाते थे। अब रंग-बिरंगे कागजों से यह काम कर रहे हैं। हालांकि पहले मंथी हुई सुतली से सजी डलिया भी बन रही हैं और उन्हें ज्यादा दाम मिल रहा है। समस्या यह है कि उन डलियाओं को बनाने के लिए कच्चा माल मिलने में मुश्किल आती है क्योंकि यह रंगीन कागजों से महंगा है। इसी तरह लघु उद्योगों में बन रहे आकर्षक दौने-पत्तलों से इनकी रोजी-रोटी बुरी तरह प्रभावित हुई है। इन जनजातियों के बनाए दौने-पत्तल पहले शहरों की दावतों में भी खप जाते थे पर अब महज कुछ गांवों में ही बिक पाते हैं। इनके कुछ परिवारों ने इसे चुनौती के रूप में लिया और किनारे धागों से सजाकर पत्तल और दौने सुंदर बना दिए। कूंचे के रूप में मशहूर इनकी बनाई झाड़ू आज भी खूब प्रयोग हो रही है। सींकों की झाड़ू भी ज्यादातर यही परिवार बना रहे हैं जो व्यापारी सस्ते दामों में खरीदकर बाजार तक पहुंचा देते हैं। और भी तमाम तरह की कलाएं हैं यहां। ढोलक भी यही लोग बनाते हैं। कलात्मक चटाइयां, बैल-गायों को बांधने वाली रस्सी, गांवों में दूध रखने के लिए प्रयोग होने वाले छींके इनके अन्य उत्पाद हैं।
यह जनजातियां देश के हर राज्य में मौजूद हैं लेकिन संख्या में ज्यादा नहीं। अकेले उत्तर प्रदेश की बात करें तो 1991 की जनगणना के अनुसार इनकी संख्या मात्र दो लाख 87 हजार 901 थी। 2001 में हुई जनगणना में राज्य की कुल जनसंख्या 16 करोड़ 60 लाख 52 हजार के आसपास मापी गई तब जनजातियों की संख्या में मामूली वृद्धि हुई थी। यह वृद्धि अन्य जातियों की वृद्धि की तुलना में बेहद कम थी। इसी राज्य के बाराबंकी जिले का उदाहरण लें तो पता चलेगा कि जिले में अन्य जातियों के मुकाबले यह महज 0.2 प्रतिशत थीं। संख्या में बढ़ोत्तरी की दर कम होने का अर्थ यह माना गया कि यह जनजातियां अब अपनी पहचान छिपाना ज्यादा पसंद करती हैं और साथ ही अपने परिवार के बच्चों के रिश्ते अन्य जातियों में करने को प्राथमिकता दे रही हैं। लेकिन जनजातियां जहां भी अधिक संख्या में रहती मिलती हैं, वहां लोककलाएं ढूंढने के लिए ज्यादा प्रयास नहीं करना पड़ता। इनके घर-घर में कलाएं हैं। घर में प्रवेश करते ही कला से जो साक्षात्कार शुरू होता है, वह जीवन-यापन का माध्यम जानने तक चलता रहता है। सरकारी योजनाओं का लाभ मिला है इन्हें लेकिन उतना नहीं, जितना जरूरी है। फिर भी उपलब्ध संसाधनों के जरिए ही यह अपनी कलाओं के संरक्षण में जुटी हैं। सरकारी सेवाओं में आरक्षण का प्रावधान होने के बावजूद यह जातियां उसका लाभ नहीं उठा पातीं क्योंकि शिक्षा का अभाव है। जनजातियों के बच्चे निर्धनता के चलते शुरू में ही स्कूल जाना बंद कर देते हैं। वजह यह है कि उन्हें अपने साथ ही परिवार का पेट पालना होता है। पहले यह जनजातियां सामाजिक रूप से उपेक्षा की शिकार थीं लेकिन कलाओं ने उन्हें अन्य जातियों से मिलने-जुलने का अवसर प्रदान किया। इसके बाद स्थितियां बदलने लगी हैं। अपनी कलात्मक पहचान की वजह से जनजातियों की सामाजिक समारोहों में भागीदारी होने लगी है। विवाह हो या संतान प्राप्ति के बाद अन्य कोई अनुष्ठान जैसा हर्ष का कोई मौका, हर जनजातियां समारोहों में सक्रिय भागीदारी करती हैं। मध्य उत्तर प्रदेश के जिलों में विशेष रूप से मैंने पाया कि समय का बदलाव पहचानते हुए कलाओं की अन्य और बिकाऊ शैलियां इन जनजातियों ने विकसित कर ली हैं हालांकि परंपरागत कलाएं भी त्यागी नहीं हैं। वह गांवों में ही सीमित नहीं रहे बल्कि शहरों में जाकर भी अपने उत्पाद बेच रहे हैं। कानपुर देहात के एक गांव में रहने वाले जौनसारी जनजाति के रामखिलावन के अनुसार, समाज में अनुसूचित वर्ग की जातियां तो हमें लगभग पूरी तरह स्वीकार करने लगी हैं। कई बार तो उच्च जातियां भी नहीं हिचकतीं। हमें सामाजिक समारोहों में विभिन्न कार्यों से बुलाया जाता है। भोजन आदि कराया जाता है, काम के बदले में धन भी मिलता है। सामाजिक ढांचे में उनकी स्वीकार्यता की बात यहीं खत्म नहीं होती। कई गांवों में उनके लड़के-लड़कियों का विवाह अन्य जातियों में भी हुआ है। यहां भी माध्यम बनी है कला। एक वैवाहिक रिश्ते का आधार महज इसलिये बन गया कि लड़की के पिता जो रस्सी बनाते थे, लड़का अपनी दुकान पर बेचा करता था। बाद में यह रिश्ता और मजबूत बन गया। उत्पादन और बिक्री बढ़ने से दोनों परिवार और समृद्ध हो गए। इस तरह की सफल कहानियां कई हैं जो अच्छे संकेत दे रही हैं कला संरक्षण के भविष्य का।

यहां भी देखिए मेरा यह आर्टिकल-
http://vichar.bhadas4media.com/tera-mera-kona/799-2010-11-24-03-18-22.html

4 comments:

naresh singh said...

बहुत बढ़िया आलेख है| कला किसी जगह या स्तर की मोहताज नहीं है वो तो कही भी पनप सकती है|

निर्मला कपिला said...

अपसे सहम्त हूँ। भारत मे प्रतिभा की कमी नही बस उसे आँकने के लिये उचित मंच नही मिलता\ शुभकामनायें।

Sanjay Grover said...

अच्छी पोस्ट लगी, ज़रुरी सूचनाओं के साथ। आपकी नयी तस्वीर बेहतर और ग्रेसफुल है। आपके संघर्ष की कहानी भी पूरी पढ़ी। फिरसे लगा कि दुनिया में एक सिर्फ़ ग़रीब से अमीर बनने का संघर्ष ही नहीं होता। अभी कई तरह के संघर्ष हैं, कई तरह की सफ़लताएं हैं, उन्हें पाने/उनसे जूझने के अपने-अपने तरीके हैं। और इनमें से बहुत कुछ अभी दुनिया के सामने आना बाक़ी है। बहुत शुभकामनाएं।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत अच्छी जानकारी देती पोस्ट ..