Monday, August 22, 2011

कला जगत को भी चाहिये अन्ना

भ्रष्टाचार के विरुद्ध अड़े अन्ना हज़ारे की लहर चल रही है। थोड़ी धीमी ही सही, पर कलाकारों ने भी हजारे के समर्थन में आवाज उठाई है। उड़ीसा के मूर्तिकार सुदर्शन पटनायक ने अन्ना को सैंड मॉडलिंग से समर्थन दिया तो वहीं कला की तमाम अन्य संस्थाएं भी सड़कों पर उतरी हैं। कला के छात्र शरीर पर पेंट कर रहे हैं तो कई ने पेंटिंग्स और पोस्टर्स को विरोध प्रदर्शन का जरिया बनाया है। आर्ट की क्लासेज़ में सभी सब्जेक्ट्स पीछे रह गए हैं, अन्ना हैं सबसे आगे। हर कैनवस पर अन्ना, हर मूर्ति की शक्ल में है अन्ना। पर शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो जहां भ्रष्टाचार ने अपनी पैठ न बनाई हो तो भला कला जगत कैसे अछूता रह सकता है?
कला में भ्रष्टता इस तरह है कि आम आदमी आसानी से सोच भी नहीं सकता। ऐसे-ऐसे कलाकार अवार्ड-पुरस्कार पा जाते हैं जिनके काम में न गंभीरता है और न ही कला की समझ ही। कला के प्रति समर्पण तो बहुत दूर की बात है। कहीं पैसे देकर बड़े अवार्ड खरीदे जा रहे हैं तो कहीं भाई-भतीजावाद, जाति-क्षेत्रवाद भारी पड़ रहा है। मुझे अच्छी तरह से याद है कि वर्षों पूर्व एक ललित कला अकादमी के चेयरमैन ने अपनी बेटी को अवार्ड के लिए चुनवा लिया। उस समय दावेदारों में कई अच्छे कलाकार थे पर चेयरमैन को यह सब जैसे दिखाई ही नहीं दिए। एक संयोजक तो और भी आगे निकल गए। उन्होंने पहले क्षेत्रीय प्रदर्शनी में अपने ही छात्रों के बीच प्रतियोगिता के लिए अपनी कृति रख दी और उसे उन दस कृतियों में चुनवाकर राज्य स्तरीय अवार्ड भी हड़प लिया। यहां भी राजनीति घुस आई है। मंत्रियों के स्तर से भ्रष्टाचार की ऐसी घुसपैठ की गई है कि अवार्ड महज सिफारिशों के आधार पर ही बंटने लगे। कलाकार उन तक पहुंच बनाने में ही अपनी ऊर्जा व्यय करने लगे, नुकसान कला को हुआ। अवार्ड बांटने वालों तक पैसे की पहुंच बनाने के लिए दलाल सक्रिय हो गए। हालात यहां तक हैं कि असली कलाकार बहुत मुश्किल से अवार्ड जीत पा रहे हैं। इसीलिये विजेताओं की सूची गुपचुप जारी हो जाती है, ताकि प्रक्रिया पर अंगुली जब उठे तब तक बहुत देर हो चुकी हो। समीक्षक भी धंधेखोरी में लगे हैं। बजाए अंगुली उठाने के, वो पैसे लेकर उस कलाकार की तारीफ के पुल बांध देते हैं जिसे अवार्ड दिलवाना हो।
भ्रष्टाचार के और भी तरीके हैं। प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों और कुकुरमुत्तों की तरह उगी संस्थाओं की डिग्री की समकक्षता ने बेड़ा गर्क कर डाला है। यह संस्थान बड़ी फीस लेकर उन छात्रों को भी कलाकार बना दे रहे हैं जिनकी कला में रुचि है ही नहीं। इसके दूरगामी असर हैं, यह छात्र इन्हीं डिग्रियों के सहारे कला के शिक्षक तक बन जा रहे हैं। यह अपने छात्रों को सिखाते क्या होंगे, यह बताने की जरूरत नहीं। इन संस्थानों के शिक्षक भी पीछे नहीं। यह छात्रों की प्रदर्शनियां आयोजित कराने में कमीशन वसूलते हैं। तरीका यह भी हो सकता है कि छात्र इनकी कृति भी प्रदर्शनी में शामिल करें वरना बैठे रहें। शिक्षक चाहेंगे तो दुनिया उनकी कला देखेगी, खरीदेगी। आर्ट गैलरीज़ भी पीछे नहीं। तय कमीशन तक की बात तो ठीक है लेकिन यह कभी-कभी कलाकार को प्रमोट करने में भी पैसा वसूलने लगती हैं। इनकी अपनी च्वॉइस है, आप होते रहिए कलाकार। यह मौका उन्हीं को देंगे जिन्हें चाहेंगे। बायर्स से सेंटिंग है इनकी, इसलिये कलाकार कुछ कर नहीं सकते। छात्र जीवन में एक राज्य अकादमी के बाहर दो वरिष्ठ कलाकारों की बातचीत मैंने सुनी थी जिसमें स्त्री कलाकार पुरुष से कह रही थीं कि पूरी उम्र काम करते गुजर गई लेकिन मुझे ढंग का अवार्ड नहीं मिला। पुरुष कलाकार का जवाब था, अच्छा हुआ। तुम शायद वह-सब नहीं कर पातीं जो आज जरूरी हो गया है। तुम गंवातीं और उसके पास जी भी न पातीं। इससे अच्छा है बिना अवार्ड के जीना। मैं अचंभित थी, आज पता चलता है कि यह वास्तविकता है कला जगत की। है कोई अन्ना जो कला की दुनिया को भ्रष्टाचार के इस मलिन रास्ते से हटा सके। तमाम कलाकार उसकी बाट जोह रहे हैं।

1 comment:

अभिषेक मिश्र said...

कला जगत की इन कड़वी सच्चाइयों को सामने लाने का उल्लेखनीय प्रयास किया है आपने. काश यह आवाज और दूर तक पहुँच पाती.