Sunday, October 7, 2012

मै एक बार फिर  ब्लॉग शुरू करने जा  हूँ !

दरअसल काफी दिनों मै कुछ दूसरे कम में व्यस्त थी! खासकर पेंटिंग में ! लेकिन अब एक बार फिर से ब्लॉग शुरू कर रही हूँ!

Monday, August 22, 2011

कला जगत को भी चाहिये अन्ना

भ्रष्टाचार के विरुद्ध अड़े अन्ना हज़ारे की लहर चल रही है। थोड़ी धीमी ही सही, पर कलाकारों ने भी हजारे के समर्थन में आवाज उठाई है। उड़ीसा के मूर्तिकार सुदर्शन पटनायक ने अन्ना को सैंड मॉडलिंग से समर्थन दिया तो वहीं कला की तमाम अन्य संस्थाएं भी सड़कों पर उतरी हैं। कला के छात्र शरीर पर पेंट कर रहे हैं तो कई ने पेंटिंग्स और पोस्टर्स को विरोध प्रदर्शन का जरिया बनाया है। आर्ट की क्लासेज़ में सभी सब्जेक्ट्स पीछे रह गए हैं, अन्ना हैं सबसे आगे। हर कैनवस पर अन्ना, हर मूर्ति की शक्ल में है अन्ना। पर शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो जहां भ्रष्टाचार ने अपनी पैठ न बनाई हो तो भला कला जगत कैसे अछूता रह सकता है?
कला में भ्रष्टता इस तरह है कि आम आदमी आसानी से सोच भी नहीं सकता। ऐसे-ऐसे कलाकार अवार्ड-पुरस्कार पा जाते हैं जिनके काम में न गंभीरता है और न ही कला की समझ ही। कला के प्रति समर्पण तो बहुत दूर की बात है। कहीं पैसे देकर बड़े अवार्ड खरीदे जा रहे हैं तो कहीं भाई-भतीजावाद, जाति-क्षेत्रवाद भारी पड़ रहा है। मुझे अच्छी तरह से याद है कि वर्षों पूर्व एक ललित कला अकादमी के चेयरमैन ने अपनी बेटी को अवार्ड के लिए चुनवा लिया। उस समय दावेदारों में कई अच्छे कलाकार थे पर चेयरमैन को यह सब जैसे दिखाई ही नहीं दिए। एक संयोजक तो और भी आगे निकल गए। उन्होंने पहले क्षेत्रीय प्रदर्शनी में अपने ही छात्रों के बीच प्रतियोगिता के लिए अपनी कृति रख दी और उसे उन दस कृतियों में चुनवाकर राज्य स्तरीय अवार्ड भी हड़प लिया। यहां भी राजनीति घुस आई है। मंत्रियों के स्तर से भ्रष्टाचार की ऐसी घुसपैठ की गई है कि अवार्ड महज सिफारिशों के आधार पर ही बंटने लगे। कलाकार उन तक पहुंच बनाने में ही अपनी ऊर्जा व्यय करने लगे, नुकसान कला को हुआ। अवार्ड बांटने वालों तक पैसे की पहुंच बनाने के लिए दलाल सक्रिय हो गए। हालात यहां तक हैं कि असली कलाकार बहुत मुश्किल से अवार्ड जीत पा रहे हैं। इसीलिये विजेताओं की सूची गुपचुप जारी हो जाती है, ताकि प्रक्रिया पर अंगुली जब उठे तब तक बहुत देर हो चुकी हो। समीक्षक भी धंधेखोरी में लगे हैं। बजाए अंगुली उठाने के, वो पैसे लेकर उस कलाकार की तारीफ के पुल बांध देते हैं जिसे अवार्ड दिलवाना हो।
भ्रष्टाचार के और भी तरीके हैं। प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों और कुकुरमुत्तों की तरह उगी संस्थाओं की डिग्री की समकक्षता ने बेड़ा गर्क कर डाला है। यह संस्थान बड़ी फीस लेकर उन छात्रों को भी कलाकार बना दे रहे हैं जिनकी कला में रुचि है ही नहीं। इसके दूरगामी असर हैं, यह छात्र इन्हीं डिग्रियों के सहारे कला के शिक्षक तक बन जा रहे हैं। यह अपने छात्रों को सिखाते क्या होंगे, यह बताने की जरूरत नहीं। इन संस्थानों के शिक्षक भी पीछे नहीं। यह छात्रों की प्रदर्शनियां आयोजित कराने में कमीशन वसूलते हैं। तरीका यह भी हो सकता है कि छात्र इनकी कृति भी प्रदर्शनी में शामिल करें वरना बैठे रहें। शिक्षक चाहेंगे तो दुनिया उनकी कला देखेगी, खरीदेगी। आर्ट गैलरीज़ भी पीछे नहीं। तय कमीशन तक की बात तो ठीक है लेकिन यह कभी-कभी कलाकार को प्रमोट करने में भी पैसा वसूलने लगती हैं। इनकी अपनी च्वॉइस है, आप होते रहिए कलाकार। यह मौका उन्हीं को देंगे जिन्हें चाहेंगे। बायर्स से सेंटिंग है इनकी, इसलिये कलाकार कुछ कर नहीं सकते। छात्र जीवन में एक राज्य अकादमी के बाहर दो वरिष्ठ कलाकारों की बातचीत मैंने सुनी थी जिसमें स्त्री कलाकार पुरुष से कह रही थीं कि पूरी उम्र काम करते गुजर गई लेकिन मुझे ढंग का अवार्ड नहीं मिला। पुरुष कलाकार का जवाब था, अच्छा हुआ। तुम शायद वह-सब नहीं कर पातीं जो आज जरूरी हो गया है। तुम गंवातीं और उसके पास जी भी न पातीं। इससे अच्छा है बिना अवार्ड के जीना। मैं अचंभित थी, आज पता चलता है कि यह वास्तविकता है कला जगत की। है कोई अन्ना जो कला की दुनिया को भ्रष्टाचार के इस मलिन रास्ते से हटा सके। तमाम कलाकार उसकी बाट जोह रहे हैं।

Tuesday, July 19, 2011

कोलाज की अजब दुनिया

अगर आपको नए एक्सपेरिमेंट्स का शौक है और कई वैरायटी के कलर्ड पेपर, कपड़ों के टुकड़े, वाल पेपर, रिबन, शापिंग बैग्स, कलर्ड थ्रेड्स आपके पास हैं तो आप उनसे क्रिएटिव आर्ट पीस तुरंत तैयार कर सकते हैं. जरूरत है सिर्फ उन्हें एक साथ कंपोज करके पेपर पर चिपकाने की. यह कोलाज पेंटिंग टेक्निक है जिसमें एक-दूसरे से अलग मैटीरियल्स को एकसाथ जोड़कर बनाया जाता है. कोलाज बनाना एक फन जैसा है जो बहुत ईज़ी भी है. इसे कैरी करना भी आसान है.
विजुअल आर्ट में रखा गया है कोलाज को जो एक फेंच शब्द है. यह कोले शब्द से बना है जिसका अर्थ है चिपकाना. इस कला में अनूठी बात यह है कि विविध चीजों को मिलाकर एक नया रूप सामने आता है. कोलाज पेंटिंग की शुरुआत क्यूबिस्ट आर्टिस्ट जार्ज ब्राक और पाब्लो पिकासो ने बीसवीं सदी में ही कर दी थी, बाद में और आर्टिस्ट अपनी-अपनी तरह से इसमें काम करने लगे. थ्री-डी इफेक्ट की वजह से इसमें पेंटिंग और स्कल्पचर दोनों का आनंद मिलता है. कोलाज के लिए फेमस सीनियर आर्टिस्ट अमृत लाल वेगड़ कहते हैं, मैं अपनी पेंटिंग्स में एक मैग्जीन के कलर्ड पेजेज का यूज करता हूं ताकि उनमें शेप और टेक्स्चर को नया आयाम मिले. इसीलिये मेरे पास ऐसी मैग्जीन्स के करीब पांच सौ इश्यू हर समय रहते हैं. कोलाज बनाना इतना एंजायिंग है कि एक कागज पर दूसरा कागज चिपकाइये और वह भी अच्छा न लगा तो तीसरा और चौथा. कागज इतना पतला होता है कि तीन-चार परत चढ़ने के बाद भी कोई डिफरेंस नहीं पड़ता. सचमुच कितना मजा आता है जब कोलाज में कौआ आंख बन जाए और नदी के डेल्टा का दलदल हैंडलूम की साड़ी. यह हमेशा नई छटा प्रस्तुत करते हैं. कई साल पहले इंडियन पिकाओ मकबूल फिदा हुसैन ने भी फिगरेटिव कोलाज बनाए थे.
मुंबई के एक आर्टिस्ट ने जले हुए फोटोग्राफ्स को चारकोल से बनी ड्राइंग पर चिपकाकर नया अनूठा इफेक्ट दिखाया. वहीं आगरा की एक आर्टिस्ट ने ताजमहल की कई कोलाज पेंटिंग बनाईं, इस मिक्स मीडिया पेंटिंग्स में उन्होंने एक्रेलिक कलर का यूज भी किया.
कोलाज की एक टेक्निक फोटो-मान्टेज में अलग-अलग फोटोग्राफ्स या उनके टुकड़ों को काटकर किसी दूसरे फोटो से जोड़कर चिपकाया जाता है. कई आर्टिस्ट इस टेक्निक का यूज करते हैं और काफी फेमस भी हैं.यह एक तरह से इमेज एडिटिंग साफ्टवेयर का काम होता है. सच में बहुत मजा आता है इसमें. वह कोलाज ही तो है जिसने सोशल एक्टीविस्ट बिनायक सेन की लड़ाई को आर्ट से जोड़ा. कोलकाता के एक आर्टिस्ट ने इसमें पेंटिंग, फोटोग्राफी और उनके करीब 50 मिनट के भाषण को एकसाथ जोड़ा. टेक्स्ट, फोटो, आडियो, वीडियो, कविता, पेंटिंग सब-कुछ इसमें शामिल था. लगभग सभी आर्टिस्ट कोलाज जरूर बनाते हैं, यह अलग है कि कभी-कभी कोलाज भारी भरकम पेंटिंग्स सब्जेक्ट्स से हुई थकान से मुक्ति दिलाने का काम करते हैं. कंप्यूटर्स के बढ़ते यूज ने कोलाज में भी इंटरफेयर किया है, इसे डिजिटल कोलाज का नाम मिला है. इसमें एडिटिंग का काम कंप्यूटर करते हैं, साथ ही डिजिटल इफेक्ट भी उसी से आता है. तरह-तरह के साफ्टवेयर हैं जो कोलाज बनाने की कला को आसान कर रहे हैं.
और भी कई तरह के कोलाज हैं. वुड कोलाज में वुडेन पीसेज को बोर्ड पर चिपका देते हैं. किसी भी बेकार मान ली गई वस्तु से भी कोलाज बनते हैं जैसे टूटे हुए कप. इन्हें और अट्रैक्टिव बनाने के लिए रस्सियों और कलर्ड थ्रेड्स का यूज होता है. कोलाज बेशक नई विधा नहीं है लेकिन यूथ आर्टिस्ट ने इसे और अट्रैक्टिव बना दिया है. वह खूब सोचते हैं और रचते हैं. नए एक्सपेरिमेंट्स से झिझकते नहीं. कहते हैं कि कोलाज दिल से निकली अभिव्यक्ति है और विविध आयामों को एक आयाम के रूप में प्रस्तुत करने जैसा है. यह ठीक उसी तरह है जैसे सात रंगों को मिलाकर स्पेक्ट्रम पूरा होता है. स्टूडेंट्स और नए आर्टिस्ट का रुझान बता रहा है कि कोलाज का भविष्य बहुत अच्छा है.

समाचार पत्र आई-नेक्स्ट में भी देखें मेरा यह आर्टिकल-
http://epaper.inextlive.com/8132/i-next-agra/18.07.11#p=page:n=11:z=1

Thursday, June 9, 2011

हुसैन पर यूं फिदा हो जाना...

मशहूर चितेरे मकबूल फिदा हुसैन को उनके चाहने वालों का अंतिम सलाम। कला को आम आदमी की चर्चाओं में शुमार करने वाले हुसैन का यूं चले जाना, जैसे आघात के समान है। नई सदी की शुरुआत में दर्ज आंकड़ों के मुताबिक, जिस दुनिया में औसत उम्र 26 बरस आठ माह हो, वहां 95 वर्ष की उम्र में दुनिया से विदाई बेशक, बड़ी बात नहीं लेकिन जब जाने वाला मकबूल हो, तो दुख का समुद्र उमड़ना लाजिमी ही है। मकबूल ऐसे ही इतने बड़े कलाकार नहीं बन गए। वर्ष 1947 में वे प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप में शामिल हुए क्योंकि परंपराओं पर चलना उन्हें पसंद नहीं था। कोशिश थी कि बंगाल स्कूल ऑफ़ आर्ट्स की राष्ट्रवादी परंपरा को तोड़कर कुछ नया करने की। लगातार नया करने की उनकी आदत ने उन्हें प्रसिद्धि की शिखर तक पहुंचा दिया। एक दिन, क्रिस्टीज़ ऑक्शन में उनकी एक पेंटिंग 20 लाख अमेरिकी डॉलर में बिकी और वह भारत के सबसे महंगे पेंटर बन गए। आर्टप्राइस को यदि प्रसिद्धि का पैमाना मानें तो दुनिया के महंगे कलाकारों में हुसैन का मुकाम 136वां है।
हुसैन पर फिदा थे कला की इस विशाल दुनिया के हजारों-लाखों लोग। इसकी ढेरों वजह हैं। वह किसी कलाकार की तरह यदि संवेदनशील थे तो व्यावहारिक भी। वह जानते थे कि किस तरह चर्चाओं में शामिल हुआ जा सकता है। उनकी चर्चा दोनों ओर होती, आलोचकों के लिए वह एक ऐसे आर्टिस्ट थे जिसे किसी आस्था से सरोकार नहीं और पैसा कमाना ही जिसका ध्येय है। उन पर हिंदू-देवी देवताओं के अश्लील चित्र बनाने का भी आरोप लगा था। 1955 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया था। इसके बाद पद्म भूषण और राज्यसभा की सदस्यता के लिए मनोनीत होने का बड़ा सम्मान भी हासिल हुआ। भारत से इतना सम्मान और प्रतिष्ठा पाने वाले मकबूल से निराशा तब हाथ लगी जब उन्होंने भारतीय नागरिकता छोड़ दी। दुर्भाग्यपूर्ण उनका बयान भी था कि भारत ने मेरा बहिष्कार किया इसलिये मैं कतर की नागरिकता स्वीकार कर रहा हूं। दक्षिणपंथी संगठनों ने उनके मुस्लिम होने पर नहीं बल्कि कला और अभिव्यक्ति पर हमला किया। मुझ पर हमला हुआ तो सरकार, कलाकार और बुद्धिजीवी सब चुप रहे।
... और चाहने वालों के लिए वह हुसैन थे। वह इतने प्रसिद्ध हो गए, कि उन्हें प्रतिष्ठित फोर्ब्स मैग्जीन ने इंडियन पिकासो का नाम दे दिया। एमएफ हुसैन उन लोगों में से एक थे जो सुंदरता की कद्र करते हैं। प्रशंसक कहते कि पुरातन काल से ही हमारा देश कला का मुरीद रहा है। सुंदरता देखने वाले की आंखों में होती है। मुगल काल में राजा-महाराजा और उच्च घराने कलाकारों को संरक्षण प्रदान कर उनकी कला का आदर करते थे। दुर्भाग्य से आज कलाकृति के सौंदर्य को अश्लीलता कहा जाता है। प्राचीन कला उत्तेजक कलाकृतियों से भरपूर रही है। पुरुष और महिला का आलिंगनबद्ध प्रदर्शन प्राचीन कला का मुख्य आकर्षण रहा है। लेकिन आज नग्नता को सिर्फ अश्लीलता की आंखों से देखा जाता है। मकबूल फिदा हुसैन की पेंटिंग को अश्लील कहने वालों पर दिल्ली हाईकोर्ट ने भी कटाक्ष किया था। देशभर में उनके विरुद्ध मामलों के स्थानांतरण पर सुनवाई करते हुए जस्टिस संजय किशन कौल ने कहा कि अदालत में हुसैन के खिलाफ केस दर्ज करने वाले लोग लगता है कभी भी समकालीन कला के दर्शन के लिए आर्ट गैलरी नहीं गए। अगर गए होते तो उन्हें पता होता कि सिर्फ हुसैन ही नहीं बल्कि कई प्रमुख पेंटर नग्नता को अपनी अभिव्यक्ति के रूप में पेश कर चुके हैं। कुछ भी हो, आर्टिस्ट हुसैन का दुनिया से जाना सचमुच दुखभरी घटना है। मेरी ओर से उन्हें श्रद्धांजलि।

Wednesday, May 25, 2011

आर्ट का समर सीजन

पढ़ने-पढ़ाने से कुछ समय के लिए छुट्टियां. समर वैकेशन्स का अलग मजा है, खासकर आर्ट फील्ड में. यह दिन सीखने के होते हैं. समर कैंप्स तो है हीं, वर्कशॉप्स और आर्ट कैंप्स भी खूब आर्गनाइज होते हैं. इनकी इम्पॉर्टेंस है. आर्ट वर्ल्ड के खिलाड़ी यहां सीखते हैं और न्यू कमर्स को सिखाते हैं. हॉटी समर्स में कोई शहर ऐसा नहीं बचता जहां यह एक्सरसाइज न चले. हिल्स एरियाज़ की तो बात ही और है. वहां तो कला के जैसे मेले जुटते हैं हर साल. गर्मियों की छुट्टियों का सभी को बड़े दिनों से इंतजार रहता है. कइयों के दिन तो कैलेंडर में तारीखें गिन-गिनकर कटते हैं. सालभर की भाग-दौड़ से मुक्ति दिलाती हैं यह छुट्टियां. इसका क्रेज तो आर्ट वर्ल्ड में भी कम नहीं. आर्टिस्ट, स्टूडेंट्स और उनके टीचर्स काफी समय पहले से प्लानिंग शुरू कर देते हैं. इसके रीजन हैं, आर्टिस्ट इसे जहां एंजॉयमेंट के साथ ही कला सृजन का मौका मानते हैं, वहीं टीचर्स के लिए यह करियर और विजन एडवांसमेंट का जरिया है. आर्टिस्ट्स को कला रचने के लिए माहौल मिलता है, टीचर्स खुद को अपडेट करते हैं और स्टूडेंट्स महारथियों से सीखने के लिए आतुर रहते हैं. उन्हें वो प्रैक्टिकल टिप्स मिल जाती हैं जो क्लासरूम्स में पॉसिबिल नहीं. सीधी सी बात है कि लैंडस्केप को किसी इमेज से देखकर बनाना उतना इंट्रेस्टिंग नहीं जितना किसी हिल्स एरिया में जाकर. पहाड़ों का अलग मजा है, इसलिये काम का काम और ऊपर से फुलटॉस मस्ती. स्टूडेंट्स ग्रुप्स बनाकर ऐसे समर कैंप्स और वर्कशॉप्स में हिस्सा लेते हैं. आगरा से आकर बनारस में पढ़ रहा मेरा एक स्टूडेंट दोनों शहरों के अपने दोस्तों को लेकर कैंप्स में पार्टीसिपेट करता है. स्टेट कैपिटल्स रांची, पटना और
लखनऊ की तो बात ही क्या, जहां से ट्रेन के सीधे लिंक्स हैं और आर्ट स्टूडेंट्स की संख्या काफी है. कला की इस दुनिया में तो गोरखपुर, आजमगढ़, अलीगढ़ जैसे शहरों के स्टूडेंट्स भी प्लानिंग में पीछे नहीं. गाजीपुर में भी एक कैंप होता है जहां नदी पर रेत के किनारे आर्टिस्ट काम करते हैं और स्टूडेंट्स उनके काम से बारीकियां सीखते हैं. मेरे पास इन्फॉर्मेशन है कि इस बार नैनीताल, अल्मोड़ा, शिमला, मैक्लोडगंज जैसे हिल सिटींज़ पर आर्टिस्ट कैंप आर्गनाइज किए गए हैं. पार्टीसिपेशन पर पैसा चाहें ज्यादा न मिले, लेकिन आर्टिस्ट आम तौर पर ऐसे मौके छोड़ते नहीं. ग्रुप-वाई यानि यंग ग्रुप में शुमार विभिन्न शहरों के स्टूडेंट्स कंट्रीब्यूट करके हर साल कई कैंप्स और वर्कशॉप्स कराते हैं. खर्च ज्यादा न हो, इसके लिए एक आर्टिस्ट को रिसोर्स पर्सन के तौर पर बुला लिया जाता है और कई दिन तक चलता रहता है सीखने का सिलसिला. कुछ वर्कशॉप्स में तो न्यू कमर्स अपना पैसा देकर पार्टीसिपेट करते हैं. दिल्ली के इंडिया हैबिटेट सेंटर में आने वाले दिनों में होने वाली एक वर्कशॉप ऐसी ही हैं. स्टूडेंट्स चाहते हैं कि बड़े कलाकारों से वह सीखें. स्टूडेंट्स का
उत्साह मुझे तो इतना अच्छा लगता है कि मैं अपने खर्च पर उन्हें सिखाने में भी नहीं हिचकती. मेरा अपना एक्सीपीरिएंस है कि ऐसी वर्कशॉप्स स्टूडेंट लाइफ में बहुत प्रॉफिटेबल साबित होती हैं. कभी-कभार क्लासरूम्स में स्टूडेंट्स का कन्फ्यूजन प्रैक्टिकल ट्रेनिंग में दूर हो जाता है. हरियाणा में ऐसी एक वर्कशॉप बहुत सक्सेसफुल साबित हुई, जहां स्टूडेंट्स ने मिले सबक तत्काल ही कैनवस पर खूबसूरती से उकेर दिए. मेरठ में हुई एक वर्कशॉप में एमीनेंट आर्टिस्ट को बुलाया गया था, वहां टीचर्स ने भी स्टूडेंट्स की तरह सीखा और अपने एक्सपीरिएंसेज शेयर किए. खूब मजा आया. स्टूडेंट्स को लगा कि सीखने में जो कसर बाकी थी, वह पूरी हुई. खूब क्वेश्चन-आंसर्स भी हुए. कभी-कभी एक-दूसरे की टेक्निक्स देखकर कुछ नया उभर आने की पॉसिबिलिटी बन जाती है. सच में, बहुत यूजफुल हैं ऐसे इवेंट्स.

Friday, May 6, 2011

अब लाइव भी है आर्ट वर्ल्ड

इसे कहते हैं, हमने आकाश को अपनी मुठि्ठयों में कैद कर लिया. नए जमाने के आर्टिस्ट्स ने आर्ट में भी इस तरह के एक्पेरिमेंट्स किए कि आर्ट जो कल तक मुश्किल से सुलभ थी, आज नए रंग-रूप और कलेवर में सामने है. आश्चर्यचकित
होने की तो बात ही है कि हर घटना को लाइव देखने की हमारी आदत ने आर्ट वर्ल्ड को भी लाइव कर लिया. मल्टीमीडिया का इतना प्रयोग शुरू कर दिया कि पेंटिंग्स के आगे का जहां भी दिखने लगा. हाल इस तरह के हैं, नए जमाने के साथ जो कलाकार नहीं चले, वो खुद को पिछड़ा हुआ फील करने लगे हैं. आर्टिस्ट आर्ट या किसी और की भी, हर डेफीनेशन में कैनवस का जिक्र जरूर चाहता है क्योंकि कैनवस है तो पेंटिंग है. पेपर या किसी भी और मीडियम को डिटेल्ड मीनिंग में कैनवस से एड्रेस किया जाता है. यह पुराना पैटर्न है जिसमें पेंटिंग को अपनी आंखों से देखा और महसूस कर लिया. लेकिन अब एक और रास्ता भी है क्योंकि कला की दुनिया भी नए कैनवस तक पहुंच चुकी है. जब हर जगह टेक्निक पहुंच रही है तो यहां भी तो आनी थी ही. इंटरनेट से देख-सीखकर नए जमाने के स्टूडेंट्स ने आर्ट को इस नए रास्ते पर पहुंचा दिया जहां आर्ट की बेसिक चीजें कैनवस, ब्रश और कलर्स सब-कुछ है लेकिन इन्हें शूट किया जा रहा है, लाइव दिखाया जा रहा है और लोग पसंद भी कर रहे हैं. कला अब आसानी से सबके सामने है. खुलेपन और एक्पेरिमेंट्स के लिए फेमस इस वर्ल्ड ने नए रास्ते को बहुत जल्दी एक्सेप्ट कर लिया है. एक्जीबिशन लगाइये या फिर मल्टीमीडिया प्रजेंटेशन से ही काम चला लीजिए. जाइये लोगों को यह प्रजेंटेशन दिखाइये और कमा लीजिए. मल्टीमीडिया के यूज ने स्टैब्लिश्ड आर्टिस्ट्स के लिए भी यह जरूरी कर दिया कि वह सीखें और एक्जीबिशन में अपनी कला का वीडिया प्रजेंटेशन भी करें. दिल्ली-मुंबई की अब सभी प्रमुख गैलरीज में एक्जीबिशन के पूरे टाइम आर्टिस्ट के वर्क का वीडियो या पॉवर प्वाइंट साथ में चलता रहता है. इंस्टॉलेशन के साथ वीड़ियो इंस्टालेशन भी चल रहा है. जो बचना चाहते थे, उन स्टूडेंट्स के लिए भी अपडेट होना जरूरी है. पीजी कोर्स में उनका काम सिर्फ पेंटिंग्स के फोटोग्राफ्स दिखाकर नहीं चल रहा. अब उन्हें भी पॉवर प्वाइंट प्रजेंटेशन देना होता है. आर्टिस्ट खुद को अपने स्टूडियो में काम करते दिखाते हैं. इसके प्रोफिट्स भी है, यह प्रजेंटेशन उन्हें बाद में स्टैब्लिश होने में मदद करेंगे. स्टूडेंट्स इसे खूब एंन्जॉय भी कर रहे हैं. अपने स्टूडियो में काम करते वक्त वह वीडियो शूट कराते हैं और देखने वाले को अपने काम की हर बारीकी से समझाना उनके लिए आसान हो जाता है. इस वीडियो को आर्ट रिलेटिड वेबसाइट पर अपनी प्रोफाइल के साथ अपलोड करने का भी आप्शन मिल जाता है. मुंबई की एक फेमस गैलरी में अमेरिकन आर्टिस्ट की एक एक्जीबिशन से शुरू हुआ यह नया सफर खूब रंग दिखा रहा है. स्टूडेंट्स, आर्टिस्ट्स के साथ ही आर्ट लवर भी इसका भरपूर आनंद ले रहे हैं. इतनी तेजी से अपडेट होती है, तभी तो कला की दुनिया आज भी लोगों को खूब आकर्षित करती है.

Thursday, March 24, 2011

रेखाओं की दुनिया...

यह आड़ी-तिरछी, गोल-चौकोर यानि तरह-तरह की रेखाओं की बात है जो मिलकर आर्ट बनती हैं. शुरुआत में आर्टिस्ट इन्हीं रेखाओं को कला कहते रहे, फिर उनमें रंग भरा और कला की यह दुनिया रंगीन हो गई. रंग और रूप तभी आया जब रेखाओं से चित्र को आकार मिला. खास बात यह है कि जो आंखें कला की शान में कसीदे पढ़ने में तल्लीन होती हैं, उन्हें रेखाएं कभी-कभी दिखती तक नहीं. नवोदित से लेकर एक्सपर्ट आर्टिस्ट तक सब ज्यादातर इन्हीं रेखाओं के सहारे कला सृजन करते हैं. सच में लाइन्स यानि ड्राइंग का खेल है आर्ट का पूरा वर्ल्ड. यही स्केच वर्क सक्सेस का रास्ता भी है. मेरे लिए इस बार ड्राइंग की बात करना जरूरी है क्योंकि एक्जामिनेशन सीजन है. डेली प्रैक्टिस के बगैर कोई स्टूडेंट न तो यहां सक्सेस पाएगा और न ही, आर्ट फील्ड में स्टैब्लिश होगा. इसके साथ ही तमाम यूथ्स तैयारी में होंगे कि नया सेशन शुरू हो और हम भी आर्टिस्ट बनने की दौड़ में उतर जाएं. कला की फील्ड में आने वाले के लिए यह जरूरी है कि वह लाइन्स रचने में कमांड पाए हुआ हो. फिर कला के चाहने वालों के लिए भी यह जानना बेहद जरूरी है कि यह रची कैसे जाती है. आप करोड़ों की आर्ट खरीदकर ड्राइंग रूम में सजाएं पर जाने नहीं कि इससे पीछे कितनी मेहनत हुई है, क्या टेक्निक यूज हुई है और कलर्स कैसे इधर-उधर फैल नहीं रहे, तो आपको खुद भी शायद ही अच्छा लगे. कला की दुनिया में बिन लाइन्स सब सून. इंडिया हो या चाइना, लगभग सभी एशियन कंट्रीज की आर्ट में रेखांकन यानि ड्राइंग का इम्पॉर्टेंट रोल है. दरअसल, यही लाइन्स एशिया और यूरोप की आर्ट को डिफरेंशिएट कराती हैं. यूरोपियन आर्ट में कलर और हमारे यहां ड्राइंग को प्रॉयर्टी का रिवाज है. ट्रेन में ट्रेवल करते या किसी हिल स्टेशन पर लैंडस्केप पेंटिंग्स रचते वक्त आर्टिस्ट इसी ड्राइंग से अपनी कृति की शुरुआत करता है. लगातार चित्र बनाते-बनाते हुई ऊबन में कोई आर्टिस्ट अलग-अलग पेपर्स पर ड्राइंग शुरू कर देता है. आर्ट की दुनिया में कहा जाता है कि डेली रुटीन में ड्राइंग किए बिना ब्रश पर कमांड आ पाना पॉसिबिल ही नहीं. मकबूल फिदा हुसैन लाइन्स के मास्टर हैं. नन्दलाल बोस, बिनोद बिहारी मुखर्जी, राम किंकर बैज और न जाने कितने ओल्ड मास्टर हैं जो लाइन्स को अपनी आर्ट की पहचान बनाकर फेमस हो गए. आर्ट की फील्ड में नए-नए एक्पेरीमेंट हुए पर उन्होंने ड्राइंग नहीं छोड़ी. रविंद्र नाथ टेगोर ने भी खूब ड्राइंग कीं. उन्होंने तो जो एक्स्प्रेशन पेन और इंक की इन लाइन्स से दिखाए, वे प्रैक्टिस आर्ट न होकर पूर्ण कलाकृतियां कहलाने लगीं. लाइन्स के जरिए हम कलाकार बहुत-कुछ दिखा सकते हैं. कलर्स का चुनाव सही हो तो पेंटिंग कमाल की बनती है. कलाकारों की चलती-फिरती, सरपट दौड़ती, उमड़ती-घुमड़ती और रेंगती यही लाइन्स हैं जो पेंटिंग्स में भाव पैदा करती हैं. हम इन्हीं से इमोशंस दिखाते हैं और यही दुख-सुख, नेचर, नदी की लहरों के रूप में आनंद और बहुत-कुछ... कैनवस पर उभारने में कामयाबी दिलाती हैं. आर्ट मार्केट का मौजूदा ट्रेंड भी ड्राइंग की तरफ है. स्टूडेंट स्केच वर्क के जरिए अपना खर्च निकाल रहे हैं. शहरों में रिवर्स और मॉन्यूमेंट्स के स्केच बनाते इन यूथ्स की भीड़ दिनभर नजर आती है. आर्ट स्कूलों में उन्हें स्केच में एक्पर्ट बनाने की कवायद पर ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है. ड्राइंग आर्ट की वह रोड है जो हमेशा भीड़ से भरी रहती है. यह जरूरी है और इसमें मौके हैं. आसानी से सुलभ, आकर्षक होने के साथ ही ज्यादा महंगी न होने की वजह से यह आर्ट हर वर्ग की पसंद है यानि इस रोड पर चलना डबल फायदे की बात है.