Saturday, June 14, 2008

मन्त्र

कला की सामग्री या ििधओं पर चर्चा आम बात है। पर िजक्र जब कलाकार, उसके काम, अवरोधों और अनुभवों का हो तो गंभीरता बढ़ जाती है। कलाकार हो या सािहत्यकार, या िकसी भी तरह की रचना गढ़ने में लगा कोई भी हो, हौसला हो तो कामयाबी कहाँ? और कामयाब वो ज्यादा है िजसने मेहनत से मुकाम पाया हो... बेशक यह दौड़ उन लोगों की भी है िजनके पास आत्म मुग्ध होने की कला है और इसकी वजह से वो आगे भी पहुँच रहे हैं लेिकन बैठ जाने की जरूरत कत्तई नहीं। ही आत्मसंतुिष्ट के अभाव से िवचिलत होना है िल्क यह तो कलाकार का मूल स्वभाव है। कहा जाता है ि जो कलाकार ख़ुद की रचनाओं से संतुष्ट होने लगे, तो मान लीिजये उसमें कलाकार या रचनाकार कहीं गुम हो गया। सीखने का दौर अनवरत है, और िजसने ख़ुद को पूरा मान िलया, वो हो गया खत्म। प्रिसद्ध िशयन सािहत्यकार चेखव बेहद मुखर होकर अपनी नािटकाओं और कहािनओं को बकवास कहते थे। एक ित्रका ने उनका नाम अन्य सािहत्यकारों की तुलना में मोटे अक्षरों में छापा तो वो नाराज़ हो गए, बोले- मैं जो िलखता हूँ उसमें कुछ भी नया या रोचक नहीं। मैं अपने िलखे को पढ़ता हूँ तो सोचता हूँ ि यह तो पहले ही िलखा जा चुका है। वो पुराना है, बहुत पुराना।
war and peace के िलए खूब चर्चा पाने वाले िलयो टोलोस्त्रॉय भी ऐसे ही थे। उनके बेटे इल्या ने िलखा है ि मेरे िपता के वश में होता तों वह अपनी कृि आन्ना कारेिनना को नस्ट कर देते। रचना प्रिक्रया के सम्बन्ध में यह बातें हैं। रचनाकार के मूड की एहिमयत होती है। मुझे ख़ुद लगता है ि मैं अच्छा काम करने जा रही हूँ। दूसरे दौर में लगता है िअच्छा काम िनकलकर आएगा, पर बारीकी नज़र नहीं आती। लगता है ि वह बात नहीं, जो सोची थी। अधूरा छोड़ देने की इक्षा होती है। आँखें संतुष्ट हो जाती हैं पर मन नहीं। भीतर का कलाकार िदल पर दबाव महसूस करता है। अब कला जगत की ही बात करें, िपकासो को कौन नहीं जानता। उनकी कहानी बताती है ि एक रचनाशील ह्रदय िकतनी िवरोधाभाषी िटलताओं से जूझता है?
िकासो जब कामयाबी के चरम पर थे, तब उन्हें अचानक लगने लगा ि वे अपनी बातों को िचत्रों के माध्यम से नहीं कह पा रहे। ये असंतुस्त कलाकार िवता करने में जुट जाता, जब वह मानता ि िवता से काम नहीं बन रहा तो हाथ में िफर कूंची जाती। लगता की कविता में शब्द ख़त्म होने लगे हैं तो उसी पेज पर रेखांकन करने लगता। कहा करता था ि मेरा मजमून रंग-िबरंगे सुग्गे-तोते जैसा लगता है। यह इतने बड़े कलाकार में असमंजस था। िपकासो कहता था ि मेरे मरने के बाद मेरा लेखन िवश्व कोष में रेखांिकत होगा। वह अचानक ही ख़ुद को एक ऐसा स्पेिनश ि मानने लगा था और उसने िचत्रकला, रेखांकन और िशल्प में भी दखलंदाजी की। सबक लीिजए, रुिकए मत और दौड़ते रहना ही िजंदगी है। यही कलाकार की िवशेषता भी कही जाती है।

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