Sunday, October 5, 2008

कलाकार का अवसान

सुशील
त्रिपाठी नहीं रहे, यह ख़बर कलमकारों के लिए जितनी त्रासद है, उतनी ही कूंची के उस्तादों के लिए भी पीडादायी। यह विश्वास ही नहीं हो रहा कि वो अब हमारे बीच नहीं हैं। उनकी गंभीर चोट को लेकर मैं चार दिन तक हॉस्पिटल में बदहवास उनके लिए प्रार्थना करती रही। बुरी ख़बर मिली तो सदमा सा लग गया। सुशील भइया की बातचीत का लहजा मुझमे जीवन्तता और अलमस्त- फक्कड़ रवैया उर्जा भर देता था। वो मेरे पिता तुल्य थे। उन्होंने यहीं से fine आर्ट्स में महारथ पाई थी। सीनियर होने के नाते मैं उन्हें भइया कहने लगी।
बात जून २००५ की है। भइया राज्य ललित कला अकेडमी के मेंबर और काशी की प्रदर्शनी के सन्योजक थे। मैं आगरा में अकेडमी के ग्रीष्म कालीन शिविर की सन्योजक थी। उनसे बातचीत का सिलसिला कला आयोजनों में मुलाकातों से शुरू हुआ। उसी दौरान मुझे बनारस आना था। ट्रेन में किसी ने मेरा बैग चोरी कर लिया। जिसमे जरुरी कागज़, मोबाइल फ़ोन, लौटने का रेल टिकेट और सारे पैसे थे।मैंने एक पुलिस वाले के मोबाइल से फ़ोन करके आगरा से भइया का नम्बर लिया। भइया एक साथी पत्रकार के साथ तुंरत रेलवे स्टेशन पहुँच गए। उन्हें देखते ही मैं रो पड़ी। वो बोले... पहले रो लो। रोने से तो वापस नहीं आएगा तुम्हारा बैग। मैं अपना मोबाइल फ़ोन खो जाने का वजह से सबसे ज्यादा दुखी थी। बहाना बनाकर बोली कि मेरे कॉलेज के जरूरी पेपर उसमे थे इसलिए रो रही हूँ। हंसते हुए बोले तुम्हारी नौकरिया तो सुरक्षित है न? वो तो बैग में नहीं चली गई? उन्होंने मेरे लौटने का रेल टिकेट बनवाया, फिर नाश्ता कराकर मुझे जरुरत के मुताबिक पैसे दिए. मैं अभिभूत थी. नवम्बर २००७ में यहाँ आने के बाद मैंने भइया को हर कला गतिविधि में देखा। कला की हर गतिविदी में हिस्सा लेते पाया। वो कला से जुड़ी हर छोटी बात को भी बराबर एहमियत देते। हर कला आयोजन में जरूर पहुंचते। भइया आपके बिना सारे आयोजन अधूरे लगेंगे। अब कौन आपकी तरह कला को परखेगा? यह समझ पाने में काफ़ी वक्त लगेगा कि अब नहीं आयेंगे भइया।
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http://bhadas4media.com/index.php/kahin/533-sushil

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